निर्मल-रूप सर्वदा मुझको, कहाँ है माया,
संसार कहाँ है?
कहाँ प्रीती व कहाँ विरति है, कहाँ जीव व
ब्रह्म कहाँ है? (२०.११)
For pure and stainless my Self, there is
no illusion,
no world, no attachment or detachment
and no
living being or God. (20.11)
अचल, विभाग-रहित सर्वदा, मैं स्व-रूप में
स्थित रहता?
कहाँ प्रवृत्ति या निर्वृत्ति है, कहाँ
मुक्ति या बंधन रहता? (२०.१२)
Immoveable, indivisible and established
in
my Self, there is no inclination or
renunciation
and no liberation or bondage. (10.12)
उपाधि रहित कल्याण रूप को, शास्त्र और
उपदेश कहाँ है?
क्या है योग्य प्राप्त करने के, कौन शिष्य
या गुरु कहाँ है? (२०.१३)
For the blissful and without distinction
my Self,
there is no sermon or scripture, no
disciple or
teacher and no goal to be achieved. (20.13)
क्या अस्तित्व, शून्य क्या होता, क्या अद्वैत,
द्वैत, है होता?
इससे अधिक कहा क्या जाए, मुझमें कुछ भी
भाव न होता? (२०.१४)
There is no existence or non-existence
and no
duality or non-duality. What more
remains to be
explained? No feeling arises now out of me. (20.14)
**इति श्री अष्टावक्र गीता - भावपद्यानुवाद**
...© कैलाश शर्मा