Monday, 19 December 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (सेंतीसवीं कड़ी)

                 सत्रहवां अध्याय (१७.११-१७.१५)                                                                                (With English connotation)
जीवन्मुक्त शांत सदा है ज्ञानी, विमल ह्रदय सर्वत्र है रहता|
हो विहीन वासनाओं से, समरस सभी परिस्थिति में रहता||(१७.११)

The liberated man is always at peace and remains
every where with spotless heart. Free from all
desires, he shines in all circumstances.(17.11)

तन मन से सब कर्म है करते, इच्छा-द्वेष रहित वह रहता|
स्थिति जिसका चित्त ब्रह्म में, जीवन्मुक्त सदा वह रहता||(१७.१२)

While indulging in all the activities of body and
heart, the liberated person is free from desires
and malice and is always established in Self.(17.12)

कभी न निंदा या स्तुति करता, न हर्षित या क्रोधित होता|
ग्रहण त्याग से मुक्त है रह कर, अनासक्त वह मुक्त है होता||(१७.१३)

He neither blames nor praises, neither rejoices
nor becomes angry. He neither gives nor takes
and unattached to desires, he remains liberated.(17.13)

चाहे प्रीत-युक्त स्त्री समीप हो, या मृत्यु समक्ष में स्थित|
जीवन्मुक्त सदा वह ज्ञानी, आत्मानंद में रहता जो स्थित||(१७.१४)

One, who is liberated and established in Self,
is not disturbed on seeing a beautiful woman
or death.(17.14)

सुख दुःख में जो सम रहता, धन अभाव एक सा रहता|    
ऐसा समदर्शी है जो ज्ञानी, जीवन्मुक्त सदैव वह रहता||(१७.१५)

He remains equal in happiness and pain, in
success and failure. One who remains equal
in all circumstances, is truly liberated soul.(17.15)

                                             ...क्रमशः

....© कैलाश शर्मा

Sunday, 6 November 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (छत्तीसवीं कड़ी)

                  सत्रहवां अध्याय (१७.६-१७.१०)                                                                                (With English connotation)
धर्म अर्थ या काम मोक्ष में, त्याग ग्रहण से मुक्त जो रहता|   
जीवन मृत्यु में सम होता, दुर्लभ ऐसा जन सदा है रहता||(१७.६)

It is rare to find such noble-minded person, who
is free from attachment and repulsion to religion,
wealth, liberation, desires, life and death.(17.6)

विश्व विलय की न है इच्छा, न विद्वेष है इसकी स्थिति से|
आनंदित, कृतज्ञ है रहता, जो कुछ पाता अपने जीवन से||(१७.७)

He neither desires the end of the world, nor is
dissatisfied with his existing state. He lives
happily and contented with whatever he gets
in life.(17.7)

आपूरित हो ज्ञान से ऐसे, स्व-बुद्धि को विलीन वह करता|
स्पर्श, सूंघते, खाते, सुनते भी, वह सदैव सुख से है रहता||(१७.८)

Thus endowed with such knowledge, he subsides
his thinking mind and remains happily even when
touching, smelling, eating and listening.(17.8)

जग सागर क्षीण होते ही, न कोई कामना,विरक्ति है रहती|
द्रष्टि शून्य, चेष्टा विहीन वह, शिथिल इन्द्रियां उसकी रहती||(१७.९)

When this world ocean dries up in him, he becomes
free from attachment and aversion. His eyes become
blank, behaviour effortless and senses inactive.(17.9)

न ही जागता, न ही सोता, न पलक खोलता बंद न करता|
है आश्चर्य कि वह ज्ञानी जन, उत्कृष्ट दशा में सदा है रहता||(१७.१०)

He is neither awake nor asleep. He neither opens
nor closes his eyes. Such enlightened soul always
remains in this liberated state.(17.10)

                                             ...क्रमशः

....© कैलाश शर्मा

Wednesday, 5 October 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (पेंतीसवीं कड़ी)

                  सत्रहवां अध्याय (१७.१-१७.५)                                                                                (With English connotation)
अष्टावक्र कहते हैं :
Ashtavakra says :

ज्ञान और योग का फल है, उसको निश्चय ही प्राप्त है होता|
जो संतुष्ट स्वच्छ इन्द्रिय है, आनंदित वह एकांत में होता||(१७.१)

One who is contented, has purified senses and
loves his solitude, definitely attains the fruits of
both knowledge and yoga.(17.1)

जो ज्ञानी है तत्व का ज्ञाता, उसको दुःख जग में कब होता|
ब्रह्म व्याप्त सम्पूर्ण विश्व है, उसको इसका आभास है होता||(१७.२)

The knower of Truth is never afflicted with pain
in the world, because he is aware that the whole
universe is pervaded by the Supreme Self.(17.2)

जो आत्मा में रमण है करता, वह विषयों से न हर्षित होता|
सल्लाकी पत्तों का प्रेमी, हाथी को प्रिय कब नीम है होता||(१७.३)

The person who has found pleasure in his inner
self does not get happiness in sensual matters,
like the elephant, who has acquired the taste
for Sallaki leaves, does not like Neem Leaves.(17.3)

न है आसक्ति प्राप्त भोग में, अप्राप्त भोग की इच्छा न करता| 
इन इच्छाओं से रहित है ज्ञानी, जग में सदा है दुर्लभ रहता||(१७.४)

It is rare to find a such a knowledgable person
who is not attached to the things which he
possesses and does not hanker after things
which he does not have.(17.4)

मोक्ष चाहते हैं कुछ जग में, कुछ भोगों में आसक्त हैं रहते|  
मुक्त हों दोनों इच्छाओं से, ऐसे जन जग में दुर्लभ हैं रहते||(१७.५)

Some persons in the world want liberation and
some are attached to pleasures. However, it is
rare to find a person who is free from both
these desires.(17.5)

                                             ...क्रमशः

....© कैलाश शर्मा

Tuesday, 6 September 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (चौंतीसवीं कड़ी)

                  सोलहवां अध्याय (१६.६-१६.११)                                                                               (With English connotation)
न विषयों से वह विरक्त है, और न उनमें आसक्ति रखता|      
वह विषयों के ग्रहण त्याग से, आसक्तिहीन सदा है रहता||(१६.६)

He is neither averse to the sensual pleasures, nor
attached to them. But while accepting or renouncing
the objects of senses, he always remains indifferent
or un-attached to them.(16.6)

तृष्णा व अविवेक भाव से, दुःख में सदा व्यक्ति है रहता|
ग्रहण त्याग भाव है जब तक, विश्व वृक्ष का अंकुर रहता|(१६.७)

So long the desires and indiscriminate feelings
remain, one is always surrounded by sufferings.
The feelings of acceptance and revulsion are the
main seeds of this world tree.(16.7)

विषयों में राग प्रवृत्ति जन का, निवृत्ति से द्वेष है होता|
बुद्धिमान जन इसके कारण, बालक सम निर्द्वंद है होता||(१६.८)

Due to ones habit there is attachment to
desires and aversion to renunciation. In view
of this the intelligent persons remain
indifferent like a child.(16.8)

दुख निवृत्ति को है जो रागी, संसार त्याग की इच्छा करता|
सुखी वीतरागी है जग में, जो सदैव सुख दुख में सम रहता||(१६.९)

One who is attached to the senses wants to
leave the world to avoid pain. One, who is
indifferent and dispassionate to pain or comfort,
remains happy in the world.(16.9)

तन से ममता, पर मोक्ष चाहता, वह ज्ञानी न योगी होता|
जो ऐसा अभिमानी जन है, केवल दुःख का है भागी होता||(१६.१०)

The person who is attached to his body, yet
wants liberation, is neither seer nor yogi. Such
person invites only sufferings due to his proud.(16.10)

चाहे शिव, विष्णु या ब्रह्मा, मिल जाएँ उपदेशक उसको|
आत्म रूप न प्राप्त है करते, बिना किये विस्मृत है सबको||(१६.११) 

Even if he gets Shiva, Vishnu or Brahma as teacher,
he will not be able to establish in Self, unless he
forgets everything. (16.11)

                   **सोलहवां अध्याय समाप्त**

                                                   ...क्रमशः

....© कैलाश शर्मा

Monday, 1 August 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (तेतीसवीं कड़ी)

                  सोलहवां अध्याय (१६.१-१६.५)                                                                               (With English connotation)
श्री अष्टावक्र कहते हैं :
Ashtavakra says :

चाहे कितने ही शास्त्रों का, कथन या वाचन तुम कर सकते|
शान्ति न पाओगे प्रिय तब तक, उनको है न विस्मृत करते||(१६.१)

Son, you may listen or study several scriptures,
but you will not attain peace and establish in
yourself until you forget everything.(16.1)

कर्म करो या भोगों को भोगो, या समाधि में ध्यान लगाओ|
लेकिन आसक्ति रहित होकर के, ज्ञानस्वरूप आनंद उठाओ||(१६.२)

You may indulge in actions and enjoy their fruits,
or enjoy the state of meditation. As you are
knowledgeable, renunciation of all attachment
will give you more happiness.(16.2)

जो प्रयत्न निर्वाह को करता, अनायास जग दुखी है रहता|
रहित वृत्तियों से ज्ञानी जन, ऐसा जान है सुख से रहता||(१६.३)

Indulgence in efforts is the main cause of 
pain, but they do not realize it. Knowing this, 
the knowledgeable remains happily.(16.3)

बंद खोलना भी नेत्रों का, कार्य आलसी को सुख देता|
ज्ञानवान निवृत्ति वृति का, उसे कार्य न यह सुख देता||(१६.४) 

For a lazy person even the act of closing and
opening of the eyes gives happiness. No one
else gets pleasure in such acts.(16.4)

करने या न करने के द्वंद्वों से, मुक्त है जब मन हो जाता|
धर्म, अर्थ व काम, मोक्ष का, आकर्षण न मन में आता||(१६.५)

When the mind becomes free from the
confusion of doing or not doing an act, the
desire for righteousness, wealth, sensuous
pleasure and liberation remains no more.(16.5)

                                                 ...क्रमशः

....© कैलाश शर्मा

Sunday, 3 July 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (बत्तीसवीं कड़ी)

                  पन्द्रहवां अध्याय (१५.१६-१५.२०)                                                                               (With English connotation)
केवल तेरे अज्ञान के कारण, जगत सत्य लगता है तुमको|
आत्मज्ञान प्राप्त होने पर, अलग नहीं रहता कुछ तुमको||(१५.१६)

This world appears to be real due to your
ignorance. Knowing that you alone are real,
there remains nothing apart from you.(15.16)

यह जग भ्रामक व असत्य है, जिसका कोई अस्तित्व न होता|
इच्छा चेष्टा रहित बिना कब, कौन शान्ति को प्राप्त है होता||(१५.१७)

This world is unreal and illusion and has no
existence. Who can attain peace, without
becoming free from efforts and desires.(15.17)

तुम इस संसार रूप सागर में, थे सदा अकेले और रहोगे|
मुक्त मोक्ष, बंधन से तुम हो, आप्त-काम सुख से विचरोगे||(१५.१८)

You alone existed, exist and will exist in this ocean
of world. Being free from bondage or liberation,
live happily and satisfied.(15.18)

क्षुब्ध करो न अपने मन को, संकल्प विकल्पों में फस करके|
स्थित हो स्व-आनंद रुप में, अपना मन तुम शांत है करके||(१५.१९)

You do not be aggrieved by involving yourself in
different resolves or alternatives. Be at peace and
enjoy by remaining in yourself.(15.19)

सब वस्तु से ध्यान त्याग कर, कुछ विचार न मन में लाओ|
तुमको चिंतन अब क्या करना, मुक्त आत्मरूप जब पायो||(१५.२०)

Remove your attention from everything and do not
retain any thought in your heart. Since you are
yourself liberated soul, what remains for you to
think now.(15.20)


                   **पंद्रहवां अध्याय समाप्त**

                                                        ...क्रमशः

....© कैलाश शर्मा

Tuesday, 14 June 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (इकत्तीसवीं कड़ी)

                 पन्द्रहवां अध्याय (१५.११-१५.१५)                                                                               (with English connotation)
तुम अनंत सागर के सम हो, जिसमें विश्व रूप लहर हैं होती|  
उठना गिरना स्वभाव लहरों का, तुम्हें न क्षति या वृद्धि होती||(१५.११)

You are just like a great ocean in which the waves
of world arise and subsidise due to their nature,
but you do not lose or gain any thing by this.(15.11)


प्रिय तुम केवल चैतन्य रूप हो, यह है विश्व अलग न तुमसे|
कैसे तुम यह सोच है सकते, कौन श्रेष्ठ या निम्न है किससे||(१५.१२)

Oh dear! you are pure consciousness only and
this world is not separate from you. Therefore,
how can you think that one is superior or inferior.(15.12)

इस अव्यय, निर्मल आकाश शांत में, नहीं तुम्हारा जैसा कोई|
जन्म, कर्म या अहंकार को, नहीं सोच सकता तुम में है कोई||(१५.१३)

In this imperishable, pure and calm space there is no
one like you. Therefore, it is unthinkable that you
may be having birth, action or ego.(15.13)

जिसे देखते हो तुम इस जग में, उसमें तुम ही प्रतिबिम्बित होते|   
कंगन, बाजूबंद या पायल सोने के, अलग स्वर्ण से कब हैं होते||(१५.१४)

Whatever you see in the world is nothing but your
reflection. How can bracelets, armlets and anklets
made of gold may be different from gold?(15.14)

यह मैं हूँ या नहीं हूँ मैं यह, इन सब भेदों का त्याग करो तुम|
तुम ही सर्वरूप आत्मा हो, यह निश्चय कर सुखी रहो तुम||(१५.१५)

You renounce all this duality that this is I and this
is not me. Knowing that you are soul encompassing
everyone, be happy.(15.15)

                                               ...क्रमशः

....© कैलाश शर्मा

Wednesday, 25 May 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (तीसवीं कड़ी)

                 पन्द्रहवां अध्याय (१५.६-१५.१०)                                                                                  (with English connotation)
सब प्राणी जन को अपने में, सब जन में अपने को जानो|
अहंकार आसक्ति रहित हो, सुख में स्थित अपने को मानो||(१५.६)

Recognise all beings in you and yourself in all 
beings. Renouncing your ego and attachment, be happy.(15.6)

विश्व सृजन होता तुमसे ही, जैसे लहरें बनतीं सागर से|
अपना चैतन्य रूप जानकर, मुक्त हो तुम सब चिंता से||(१५.७)

This universe is created from you, like the waves
created from sea. Knowing your conscious Self,
be free from all worries.(15.7)

इस अनुभव पर निष्ठा रखना, इस पर तुम संदेह न करना|
ज्ञान स्वरुप, प्रकृति परे हो, स्व-आत्म विश्वास है रखना||(१५.८)

Have faith in your experiences and never doubt
it. You are consciousness and beyond nature, so
have faith in your Self.(15.8)

यह शरीर गुणों से आवृत, जन्म मरण को प्राप्त है होता|     
आत्मा न आती जाती है, फिर क्यों तू शोकाकुल होता||(१५.९)

This body, consisting of senses and attributes,
comes, stays and goes. The Soul neither comes
nor goes, so why are you worried.(15.9)

सृष्टि अंत तक यह शरीर हो, अथवा आज नष्ट हो जाए|
तुम केवल चैतन्य रूप हो, तुम्हें न लाभ हानि हो पाए||(१५.१०)

It makes no difference whether your body
remains till the end of ages or is destroyed
right now. You will not gain or lose anything,
as you are pure consciousness.(15.10)

                                              ...क्रमशः
....© कैलाश शर्मा

Wednesday, 4 May 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (उन्तीसवीं कड़ी)

                 पन्द्रहवां अध्याय (१५.१-१५.५)                                                                                  (with English connotation)
अष्टावक्र कहते हैं :
Ashtavakra says :

सात्विक बुद्धि युक्त जो जन है, कुछ उपदेश से मुक्ति है पाता|
असत् बुद्धि जिज्ञासु जीवन भर, न बन पाता ब्रह्म का ज्ञाता||(१५.१)

A man of pure intelligence may attain his goal by
casual instructions, whereas the other one even
after seeking knowledge throughout his life, may
be unable to achieve the goal.(15.1)

विषय विराग मोक्ष का रस्ता, विषयों में आनंद है बंधन|
इन सब का तुम ज्ञान है करके, करो वही जो कहता है मन||(१५.२)

Indifference to sense objects is way to liberation.
Pleasure in sense objects is bondage. After having
knowledge of all this, you should do as you wish.(15.2)

जो वाचाल, ज्ञानी, उद्योगी, तत्वबोध शांत व जड़ करता|
सुख का इच्छुक जो जन होता, सत्यत्याग इस लिए  करता||(१५.३)

Awareness of truth makes eloquent, intelligent
and industrious man calm, dumb and inactive.
Therefore, the truth is discarded by those who
are desirous of enjoyment.(15.3)

न तुम शरीर न यह तन तेरा, न तुम कर्ता या भोक्ता हो|
रहो सुखी चैतन्य व शाश्वत, तुम निरपेक्ष और साक्षी हो||(१५.४)

You are neither this body nor this body is yours.
You are neither the doer of actions nor the
beneficiary of their fruits. You are pure
consciousness, eternal, devoid of desires and
mere witness to the actions, so be happy.(15.4)

राग द्वेष ये धर्म हैं मन के, किंचित हैं न मन के गुण तुम में|
ज्ञान स्वरुप कामनारहित तुम, निर्विकार स्थित हो सुख में||(१५.५)

Desires and angers are the traits of the mind,
but you are not mind. You are choiceless and
spotless awareness and, therefore, be happy.(15.5)

                                             ...क्रमशः
....©कैलाश शर्मा

Friday, 11 March 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (अट्ठाईसवीं कड़ी)

                  चौदहवां अध्याय (१४.१-१४.४)                                                                                  (with English connotation)
राजा जनक कहते हैं :
King Janak says :

शून्य चित्त है जो स्वभाव से, शायद ही कुछ इच्छा करता|
मुक्त पूर्व स्मृतियों से है होता, जैसे जन हैं नींद से जगता||(१४.१)

He, who by nature is empty-minded and hardly
desires anything, becomes free from previous
memories, like a person who wakes up from sleep.(14.1)

गलित हो गयी जब इच्छाएं, धन, मित्रों से नहीं प्रयोजन|
विज्ञान, शास्त्र और भोगों से, रहता कब है कोई प्रयोजन||(१४.२)

When all the desires have dissolved, wealth, friends,
scriptures, knowledge and sensual satisfaction have
no meaning.(14.2)

साक्षी रूप में जाना मैंने, परमात्मा या ईश्वर को जब से|
हो निरासक्त मोक्ष, बंधन से, चिंता मुक्त मोक्ष इच्छा से||(१४.३)

Knowing the God or Lord as witness, I have
become indifferent to liberation and bondage
and have become free from desire of liberation.(14.3)

इच्छारहित है अंतस लेकिन स्वेच्छाचारी मत्त के जैसा|
ऐसे उन्मत्त है ज्ञानी जन को, पहचाने ज्ञानी उस जैसा||(१४.४)

The state of absence of desire inside and
carefree from outside can be understood only
by a person in the state of similar enlightenment.(14.4)

                  **चौदहवां अध्याय समाप्त**

                                                 ...क्रमशः
....©कैलाश शर्मा   

Friday, 26 February 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (सत्ताईसवीं कड़ी)

                  तेरहवां अध्याय (१३.५-१३.७)                                                                                     (with English connotation)
विश्राम, गति, शयन और कर्मों में, मेरा हानि लाभ न होता|
लौकिक व्यवहार में दंभ रहित मैं, आत्मानंद में स्थिर होता||(१३.५)

I incur no loss or profit while resting, moving,
sleeping or working. Performing my worldly duties
without any ego, I exist in my Self pleasantly.(13.5)

हानि नहीं मेरी कुछ भी सोने से, कार्य सिद्धि से लाभ न होता|
हर्ष विषाद का त्याग मैं कर के, स्थिर सब स्थितियों में होता||(१३.६)

I do not suffer any loss by sleeping and do not get any benefit by performing activities. By renouncing happiness and sorrow, I remain constant in all situations.(13.6)

है अनित्य सुख दुःख जीवन में, आना जाना है क्रम से रहता|
शुभ व अशुभ का चिंतन तज कर, खुश मैं हर स्थित में रहता||(१३.७)

Knowing that pleasure and pain are temporary and
come and go repeatedly. By renouncing the
thought of auspicious and inauspicious, I exist
pleasantly in all situations.(13.7)


                   **तेरहवां अध्याय समाप्त** 
                                                      ...क्रमशः
....©कैलाश शर्मा