Friday, 11 March 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (अट्ठाईसवीं कड़ी)

                  चौदहवां अध्याय (१४.१-१४.४)                                                                                  (with English connotation)
राजा जनक कहते हैं :
King Janak says :

शून्य चित्त है जो स्वभाव से, शायद ही कुछ इच्छा करता|
मुक्त पूर्व स्मृतियों से है होता, जैसे जन हैं नींद से जगता||(१४.१)

He, who by nature is empty-minded and hardly
desires anything, becomes free from previous
memories, like a person who wakes up from sleep.(14.1)

गलित हो गयी जब इच्छाएं, धन, मित्रों से नहीं प्रयोजन|
विज्ञान, शास्त्र और भोगों से, रहता कब है कोई प्रयोजन||(१४.२)

When all the desires have dissolved, wealth, friends,
scriptures, knowledge and sensual satisfaction have
no meaning.(14.2)

साक्षी रूप में जाना मैंने, परमात्मा या ईश्वर को जब से|
हो निरासक्त मोक्ष, बंधन से, चिंता मुक्त मोक्ष इच्छा से||(१४.३)

Knowing the God or Lord as witness, I have
become indifferent to liberation and bondage
and have become free from desire of liberation.(14.3)

इच्छारहित है अंतस लेकिन स्वेच्छाचारी मत्त के जैसा|
ऐसे उन्मत्त है ज्ञानी जन को, पहचाने ज्ञानी उस जैसा||(१४.४)

The state of absence of desire inside and
carefree from outside can be understood only
by a person in the state of similar enlightenment.(14.4)

                  **चौदहवां अध्याय समाप्त**

                                                 ...क्रमशः
....©कैलाश शर्मा   

10 comments:

  1. अति सुन्दर अनुवाद। बहुत खूब।

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  2. अति सुन्दर अनुवाद। बहुत खूब।

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  3. हमेशा की तरह लाजवाब ।

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  4. हमेशा को तरह चिर नवीन ।

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  5. साक्षी रूप में जाना मैंने, परमात्मा या ईश्वर को जब से|
    हो निरासक्त मोक्ष, बंधन से, चिंता मुक्त मोक्ष इच्छा से
    मन - चित्त को प्रसन्न करने वाले शब्द आदरणीय शर्मा जी !!

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  6. सुंदर अष्टावक्र का ध्यान आते है उनका विसंगतियों से भरा जीवन भी अनमोल हो गया
    केवल बुधि ही ऐसा बल दे सकती है, नमन आपको सुंदर प्रेरणात्मक रचना के लिए

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  7. हमेशा की तरह बहुत बढिया.

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  8. महत्वपूर्ण कृति का प्रभावशाली अनुवाद ।

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