Monday, 1 August 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (तेतीसवीं कड़ी)

                  सोलहवां अध्याय (१६.१-१६.५)                                                                               (With English connotation)
श्री अष्टावक्र कहते हैं :
Ashtavakra says :

चाहे कितने ही शास्त्रों का, कथन या वाचन तुम कर सकते|
शान्ति न पाओगे प्रिय तब तक, उनको है न विस्मृत करते||(१६.१)

Son, you may listen or study several scriptures,
but you will not attain peace and establish in
yourself until you forget everything.(16.1)

कर्म करो या भोगों को भोगो, या समाधि में ध्यान लगाओ|
लेकिन आसक्ति रहित होकर के, ज्ञानस्वरूप आनंद उठाओ||(१६.२)

You may indulge in actions and enjoy their fruits,
or enjoy the state of meditation. As you are
knowledgeable, renunciation of all attachment
will give you more happiness.(16.2)

जो प्रयत्न निर्वाह को करता, अनायास जग दुखी है रहता|
रहित वृत्तियों से ज्ञानी जन, ऐसा जान है सुख से रहता||(१६.३)

Indulgence in efforts is the main cause of 
pain, but they do not realize it. Knowing this, 
the knowledgeable remains happily.(16.3)

बंद खोलना भी नेत्रों का, कार्य आलसी को सुख देता|
ज्ञानवान निवृत्ति वृति का, उसे कार्य न यह सुख देता||(१६.४) 

For a lazy person even the act of closing and
opening of the eyes gives happiness. No one
else gets pleasure in such acts.(16.4)

करने या न करने के द्वंद्वों से, मुक्त है जब मन हो जाता|
धर्म, अर्थ व काम, मोक्ष का, आकर्षण न मन में आता||(१६.५)

When the mind becomes free from the
confusion of doing or not doing an act, the
desire for righteousness, wealth, sensuous
pleasure and liberation remains no more.(16.5)

                                                 ...क्रमशः

....© कैलाश शर्मा

8 comments:

  1. जय मां हाटेशवरी...
    अनेक रचनाएं पढ़ी...
    पर आप की रचना पसंद आयी...
    हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 02/08/2016 को
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की गयी है...
    इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (03-08-2016) को "हम और आप" (चर्चा अंक-2423) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. सुंदर कर्म तो करें हम पर उसमें आसक्ति ना रखें तो सब कुछ करते हुे मुक्त होना, बहुत सुंदर।

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  4. कर्म करो या भोगों को भोगो, या समाधि में ध्यान लगाओ|
    लेकिन आसक्ति रहित होकर के, ज्ञानस्वरूप आनंद उठाओ|
    जीवन के लिए प्राण वायु और भोजन जितना आवश्यक है , अध्यात्म भी उसी अनुरूप आवश्यक हो जाता है ! बेहतरीन पंक्तियाँ आदरणीय शर्मा जी

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  5. वाह ! क्या बात है ! बेहतरीन अनुवाद। बहुत सुंदर।

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