न विषयों से वह विरक्त
है, और न उनमें आसक्ति रखता|
वह विषयों के ग्रहण
त्याग से, आसक्तिहीन सदा है रहता||(१६.६)
He is neither averse to the sensual pleasures, nor
attached to them. But while accepting or renouncing
the objects of senses, he always remains indifferent
or un-attached to them.(16.6)
तृष्णा व अविवेक भाव
से, दुःख में सदा व्यक्ति है रहता|
ग्रहण त्याग भाव है जब
तक, विश्व वृक्ष का अंकुर रहता|(१६.७)
So long the desires and indiscriminate feelings
remain, one is always surrounded by sufferings.
The feelings of acceptance and revulsion are the
main seeds of this world tree.(16.7)
विषयों में राग
प्रवृत्ति जन का, निवृत्ति से द्वेष है होता|
बुद्धिमान जन इसके
कारण, बालक सम निर्द्वंद है होता||(१६.८)
Due to ones habit there is attachment to
desires and aversion to renunciation. In view
of this the intelligent persons remain
indifferent like a child.(16.8)
दुख निवृत्ति को है जो
रागी, संसार त्याग की इच्छा करता|
सुखी वीतरागी है जग
में, जो सदैव सुख दुख में सम रहता||(१६.९)
One who is attached to the senses wants to
leave the world to avoid pain. One, who is
indifferent and dispassionate to pain or comfort,
remains happy in the world.(16.9)
तन से ममता, पर मोक्ष
चाहता, वह ज्ञानी न योगी होता|
जो ऐसा अभिमानी जन है,
केवल दुःख का है भागी होता||(१६.१०)
The person who is attached to his body, yet
wants liberation, is neither seer nor yogi. Such
person invites only sufferings due to his
proud.(16.10)
चाहे शिव, विष्णु या ब्रह्मा,
मिल जाएँ उपदेशक उसको|
आत्म रूप न प्राप्त है
करते, बिना किये विस्मृत है सबको||(१६.११)
Even if he gets Shiva, Vishnu or Brahma as teacher,
he will not be able to establish in Self, unless he
forgets everything. (16.11)
**सोलहवां अध्याय समाप्त**
...क्रमशः
....© कैलाश शर्मा
सुन्दर भाव पद्यानुवाद हेतु धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह जारी रहे सुन्दर ।
ReplyDeleteसुन्दर सार्थक अनुवाद ...
ReplyDeleteआद्वितय ..भाव पद्यानुवाद.
ReplyDeleteवाह ! बहुत सुन्दर अनुवाद।
ReplyDeleteवाह ! बहुत सुन्दर अनुवाद।
ReplyDeleteतृष्णा व अविवेक भाव से, दुःख में सदा व्यक्ति है रहता|
ReplyDeleteग्रहण त्याग भाव है जब तक, विश्व वृक्ष का अंकुर रहता|(१६.७)
जब तक राग-द्वेष बना हुआ है तब तक मुक्ति नहीं..सुंदर बात
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-09-2016) को "हिन्दी, हिन्द की आत्मा है" (चर्चा अंक-2460) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार..
Deleteतन से ममता, पर मोक्ष चाहता, वह ज्ञानी न योगी होता|
ReplyDeleteजो ऐसा अभिमानी जन है, केवल दुःख का है भागी होता
सुन्दर अभिव्यक्ति !! आदरणीय शर्मा जी
तृष्णा व अविवेक भाव से, दुःख में सदा व्यक्ति है रहता|
ReplyDeleteग्रहण त्याग भाव है जब तक, विश्व वृक्ष का अंकुर रहता|
जितना सुंदर दोहा उत्साही सुंदर अनुवाद।
तृष्णा व अविवेक भाव से, दुःख में सदा व्यक्ति है रहता|
ReplyDeleteग्रहण त्याग भाव है जब तक, विश्व वृक्ष का अंकुर रहता|
जितना सुंदर दोहा उत्साही सुंदर अनुवाद।
बहुत सुंदर और सार्थक अनुवाद।
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