तृतीय अध्याय (३.०६-३.१०)
(with English connotation)
(with English connotation)
एक ब्रह्म का आश्रय लेकर, मोक्ष प्राप्ति को उद्धत जो रहता|
है आश्चर्य कि क्यों ऐसा जन, कामक्रिया को विचलित रहता||(३.६)
It is surprising
that the one, who has realised the
non-dual nature of the Supreme and is always
aspiring for liberation, runs after lust and sexual
activities.(3.6)
काम शत्रु है समझता ज्ञानी, अंतिम पहर में दुर्बल तन से|
है आश्चर्य कि निकल न पायी, काम वासना उसके मन से||(३.७)
It is strange that even after knowing that the sexual
lust is an enemy to the seeker of knowledge and
he is incapable of enjoying the same at the fag end
of his life, he hankers after sexual
activities.(3.7)
है विरक्त दोनों लोकों से, नित्य अनित्य विवेक
है जिसमें|
है आश्चर्य मोक्ष इक्षुक को, लगता डर है मोक्ष
से मन में||(३.८)
It is surprising that he is unattached to this world
as well as the other, knows the difference between
permanence and impermanence and craves for
liberation, is still afraid of Moksha or liberation.(3.8)
भोज कराए चाहे कोई, या जो पीड़ा का कारण
होता|
धैर्यवान आत्मा जो देखे, न संतोष न दुःख ही
होता||(३.९)
The wise man, who is aware of his self, is neither
happy nor sad, if he is praised or tormented.(3.9)
अपने कार्यशील तन को जो, औरों के तन सम है
समझता|
ऐसे महा पुरुष को कैसे, निंदा स्तुति विचलित कर सकता||(३.१०)
The wise man, who sees even his own body in
action like the body of others, then how may
he be disturbed by praise or blame.(3.10)
....क्रमशः
....©कैलाश शर्मा
अपने कार्यशील तन को जो, औरों के तन सम है समझता|
ReplyDeleteऐसे महा पुरुष को कैसे, निंदा स्तुति विचलित कर सकता||
द्वंद्व में समता बनाये रखना ही योग है..सराहनीय प्रस्तुति...
मानव जीवन के एक महत्वपूर्ण क्रिया-कलाप पर एक अदभूत प्रस्तुति।
ReplyDeleteसुन्दर अनुवाद।
ReplyDeleteसम्यक समीक्षा करता उत्कृष्ट अनुवाद ! अति सुन्दर !
ReplyDeleteजीवन का यथार्थ .. सुन्दर अनुवाद ..
ReplyDeleteभोज कराए चाहे कोई, या जो पीड़ा का कारण होता|
ReplyDeleteधैर्यवान आत्मा जो देखे, न संतोष न दुःख ही होता||
मानव जीवन के क्रियाकलापों को सार्थक रूप से व्यक्त करती शानदार प्रस्तुति !!