Wednesday, 23 September 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (दसवीं कड़ी)

                                      तृतीय अध्याय (३.०१-३.०५)
                                             (with English connotation)
अष्टावक्र कहते हैं :
Ashtavakra says :

अविनाशी, अद्वैत आत्म है, जो यह ज्ञान प्राप्त कर पाता|
आत्म ज्ञान प्राप्त है जिसको, धन अर्जन रूचि कब रख पाता||(३.१)

The Self is one and indestructible and the person,
who has acquired this knowledge, does not have
any interest in acquiring wealth. (3.1)

अपने ही अज्ञान के भ्रम वश, विषयों से लगाव हो जाता|
रजत है सीपी में भ्रम से, लालच उसके मन में हो जाता||(३.२)

The ignorance of Self creates attachment in objects
of perception, just as the mistaken belief of silver
in the mother of pearls creates greed. (3.2)

यह आत्मा सागर के सम है, विश्व है जिस में लहरों जैसा|
स्व-आत्मा को बोध जिसे है, भागे कैसे वह दीन के जैसा||(३.३)

The Self is like an ocean from which the world originates like waves. One who has understood oneself, how can run after needs. (3.3)

सुन्दर चैतन्य शुद्ध है आत्मा, जो जन इसका मर्म है जाने|
है आश्चर्य मूढ़ वह जन कैसे, मलिन हैं विषयों से हो जाते||(३.४)   

After knowing that the Self is pure consciousness
and beautiful, how can one involve in sexual
objects and get impure.(3.4)
   
सर्व जनों में अपनी आत्मा, स्व-आत्म में सबको है मानता|  
कैसे ममत्व वश में हो जाता, जो ज्ञानी यह मर्म जानता||(३.५)

When the sage perceives the self in every being
and every being in his self, it is surprising how can
he retain attachment.(3.5)

                                                ....क्रमशः

....©कैलाश शर्मा

10 comments:

  1. वाह !! बहुत सुन्दर अनुवाद।

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  2. अष्टावक्र को आपने जीवन्त कर दिया । ऐसा लगता है जैसे अष्टावक्र बोल रहे हैं और आप लिख रहे हैं । अभी तक मैने उनकी तस्वीर नहीं देखी थी पर देख - कर लगता है कि उनके पिता ने उन्हें शाप तो दे दिया पर उन्हें कितनी आत्मग्लानि हुई होगी ? अद्भुत हैं हमारे संस्कार ! कुछ भी समझ में नहीं आता ।

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  3. अत्यंत प्रभावशाली अनुवाद ! इस महत् कार्य के लिये आपको भूरि-भूरि साधुवाद कैलाश जी !

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  4. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24-09-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2108 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  5. अष्टावक्र कहते हैं - ' ते केन अपि संग: न अतः शुद्ध: '
    अतिसुन्दर अनुवाद .

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  6. सर्व जनों में अपनी आत्मा, स्व-आत्म में सबको है मानता|
    कैसे ममत्व वश में हो जाता, जो ज्ञानी यह मर्म जानता||(३.५)

    बहुत सुंदर..अनुपम ज्ञान..

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