Wednesday, 30 September 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (ग्यारहवीं कड़ी)

                                      तृतीय अध्याय (३.०६-३.१०)
                                             (with English connotation)

एक ब्रह्म का आश्रय लेकर, मोक्ष प्राप्ति को उद्धत जो रहता|    
है आश्चर्य कि क्यों ऐसा जन, कामक्रिया को विचलित रहता||(३.६)

It is surprising  that the one, who has realised the
non-dual nature of the Supreme and is always
aspiring for liberation, runs after lust and sexual
activities.(3.6)

काम शत्रु है समझता ज्ञानी, अंतिम पहर में दुर्बल तन से|
है आश्चर्य कि निकल न पायी, काम वासना उसके मन से||(३.७)

It is strange that even after knowing that the sexual
lust is an enemy to the seeker of knowledge and
he is incapable of enjoying the same at the fag end 
of his life, he hankers after sexual activities.(3.7)

है विरक्त दोनों लोकों से, नित्य अनित्य विवेक है जिसमें|
है आश्चर्य मोक्ष इक्षुक को, लगता डर है मोक्ष से मन में||(३.८)

It is surprising that he is unattached to this world
as well as the other, knows the difference between
permanence and impermanence and craves for
liberation, is still afraid of Moksha or liberation.(3.8)

भोज कराए चाहे कोई, या जो पीड़ा का कारण होता|  
धैर्यवान आत्मा जो देखे, न संतोष न दुःख ही होता||(३.९)

The wise man, who is aware of his self, is neither
happy nor sad, if he is praised or tormented.(3.9)

अपने कार्यशील तन को जो, औरों के तन सम है समझता|   
ऐसे महा पुरुष को कैसे, निंदा स्तुति विचलित कर सकता||(३.१०)

The wise man, who sees even his own body in
action like the body of others, then how may
he be disturbed by praise or blame.(3.10)

                   ....क्रमशः

....©कैलाश शर्मा

Wednesday, 23 September 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (दसवीं कड़ी)

                                      तृतीय अध्याय (३.०१-३.०५)
                                             (with English connotation)
अष्टावक्र कहते हैं :
Ashtavakra says :

अविनाशी, अद्वैत आत्म है, जो यह ज्ञान प्राप्त कर पाता|
आत्म ज्ञान प्राप्त है जिसको, धन अर्जन रूचि कब रख पाता||(३.१)

The Self is one and indestructible and the person,
who has acquired this knowledge, does not have
any interest in acquiring wealth. (3.1)

अपने ही अज्ञान के भ्रम वश, विषयों से लगाव हो जाता|
रजत है सीपी में भ्रम से, लालच उसके मन में हो जाता||(३.२)

The ignorance of Self creates attachment in objects
of perception, just as the mistaken belief of silver
in the mother of pearls creates greed. (3.2)

यह आत्मा सागर के सम है, विश्व है जिस में लहरों जैसा|
स्व-आत्मा को बोध जिसे है, भागे कैसे वह दीन के जैसा||(३.३)

The Self is like an ocean from which the world originates like waves. One who has understood oneself, how can run after needs. (3.3)

सुन्दर चैतन्य शुद्ध है आत्मा, जो जन इसका मर्म है जाने|
है आश्चर्य मूढ़ वह जन कैसे, मलिन हैं विषयों से हो जाते||(३.४)   

After knowing that the Self is pure consciousness
and beautiful, how can one involve in sexual
objects and get impure.(3.4)
   
सर्व जनों में अपनी आत्मा, स्व-आत्म में सबको है मानता|  
कैसे ममत्व वश में हो जाता, जो ज्ञानी यह मर्म जानता||(३.५)

When the sage perceives the self in every being
and every being in his self, it is surprising how can
he retain attachment.(3.5)

                                                ....क्रमशः

....©कैलाश शर्मा

Tuesday, 15 September 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (नौंवी कड़ी)

                                      द्वितीय अध्याय (२.२१-२.२५)
                                             (with English connotation)
है आश्चर्य भीड़ में जग की, नहीं दूसरा दिखता मुझ को|
जग लगता हो जंगल जैसा, होगा किससे मोह है मुझ को||(२.२१)

I am amazed that I do not see duality even in
crowd. The world appears desolate to me. Then
how can I have attachment with anyone. (2.21)

न शरीर मैं जो जड़ होता , और न है यह शरीर ही मेरा|
जीव नहीं, चैतन्य हूँ मैं तो, जीने की इच्छा बंधन है मेरा||(२.२२)

Neither I am body, nor this body is mine. I am
pure Consciousness. My craving or desire to
live is my only bondage. (2.22)

जैसे वायु वेग के कारण, लहरें उठती अनंत  सागर में|
वैसे ही मेरी चित्त वृत्ति से, उठती लहरें अंतस सागर में||(२.२३)

King Janak says that as due to winds the
waves arise in the ocean and subsidise
when the winds calm down, similarly in the  
infinite ocean of myself, due to the mental
winds, many waves of surprising world
arise in my consciousness. (2.23)

जब अंतस अनंत सागर में, चित्तवायु शांत हो जाती|
जीव वणिक शरीर नौका है, क्षय अभाग्यवस हो जाती||(२.२४)   

When in the infinite ocean of myself, the mental
winds subsidise, the body boat of the living-being
trader is destroyed unfortunately. Here the Self
is compared with the ocean, the mental activities
with the winds, the body with the boat, the living-
being with the trader. (2.24)

मेरे अंतस अनंत सागर में, जीवन रूपी लहरें उठ जातीं| 
मिलकर और खेलकर लहरें, हैं मुझमें ही हो लय जातीं||(२.२५)

It is surprising that in the infinite ocean of myself,
the waves of life arise, meet, play and ultimately
subsidise in me according to their nature. (2.25)

                द्वितीय अध्याय समाप्त

                                     ....क्रमशः

....©कैलाश शर्मा


Wednesday, 9 September 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (आठवीं कड़ी)

                                      द्वितीय अध्याय (२.१६-२.२0)
                                             (with English connotation)

द्वैत है कारण सभी दुखों का, जो कुछ  दिखता सत्य नहीं है|    
बोध आत्मा का जब होता, औषधि निवृति की एक वही है||(२.१६)

In reality duality is the main cause of all sufferings.
The only remedy for this is the realisation that all
that is visible is not real and I am the only spotless
consciousness.(2.16)

मैं तो केवल ज्ञानरूप हूँ, अज्ञान करे मुझमें गुण कल्पित| 
ऐसा है विचार कर के मैं, चैतन्य सनातन रूप में स्थित||{२.१७)

I am pure consciousness and only due to ignorance
I have attributed qualities to me. In view of this my
existence is eternal and without any cause.(2.17)

न कोई बंधन, न मुक्ति का भ्रम, शांत और निराश्रय हूँ मैं|
है आश्चर्य की मुझमें स्थित, यह जग भी न स्थित मुझ में||(२.१८)

I am not afraid of bondage or liberation. I am
peaceful and without any support. It is amazing
 that all this world exists in me, but in reality
even this world does not exist in me.(2.18)

सशरीर यह विश्व न कुछ भी, इसका कोई अस्तित्व नहीं है|
निर्मल चैतन्य आत्म जब जानो, जग अस्तित्व विलीन वहीं है||(२.१९)  

In reality this world along with body is nothing
and it has no existence. When you realise your
pure  Consciousness, then what else remains
for your imagination.(2.19)

मात्र कल्पना तन व भय हैं, स्वर्ग, नर्क, मोक्ष व बंधन|
मैं चैतन्य स्वरुप हूँ मेरा इन सब से क्या रहा प्रयोजन||(२.२०)

The body, fear, heaven, hell, liberation and
bondage are all imaginary. What else is left
to me, who is pure Consciousness.(2.20)


                                     ....क्रमशः

....©कैलाश शर्मा

Friday, 4 September 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (सातवीं कड़ी)

                                      द्वितीय अध्याय (२.११-२.१५)
                                             (with English summary)


आश्चर्य और नमन है मुझको, जिसका है विनाश न होता|
ब्रह्मा से त्रण तक विनाश पर, विद्यमान सदा वह होता|| (२.११)

I wonder and salute myself, who is not destroyed
and remains even after the destruction of the
whole world from Brahma to the blade of grass.(2.11)

मैं आश्चर्य रूप नमन है मुझको, देहयुक्त अद्वैत हूँ फिर भी|
नहीं कहीं भी आता जाता, आच्छादित करता जग फिर भी||(२.१२)

I wonder and salute myself, who is one and despite
endowed with body, neither comes nor goes anywhere and pervades the entire world with my presence. (2.12)

मैं हूँ विलक्षण नमन है मुझको, नहीं कुशल मेरे सम जग में|
बिन स्पर्श किए ही यह तन, धारण करता रहा हूँ जग मैं||(२.१३)

Amazing and salute to me that there is no one
as clever as me in the world. I am holding all beings
for ever even without touching it with my body.(2.13)

मैं हूँ विलक्षण नमन है मुझको, किंचित मात्र नहीं है जिसका|  
अथवा वाणी मन से जो गोचर, वह सब ही केवल है जिसका||(२.१४)

I wonder and salute to me that nothing in this world
belongs to me. On the other hand whatever may be
referred to by speech or mind all that belongs to me.(2.14)

ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता ये तीनों, इनका अस्तित्व नहीं चेतन में|
केवल है अज्ञान के कारण, मेरा निष्कलंक रूप देखते इनमें||(२.१५)  

Knowledge, what is to be known and knower do
not exist in reality. Due to ignorance people see
these three in my spotless image.(2.15)

                                            ...क्रमशः

....©कैलाश शर्मा

Tuesday, 1 September 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (छठी कड़ी)

                                      द्वितीय अध्याय (२.0६-२.१०)
                                             (with English summary)

जैसे गन्ने के रस की शक्कर में, गन्ने का गुण व्याप्त है रहता|
मुझसे ही यह विश्व बना है, मुझसे ही यह व्याप्त है रहता||(२.६)

The sugar made from the sugarcane juice
contains the same sweetness of the sugarcane.
Similarly this world, which has been made from
me, is also permeated with myself.(2.6)

जगत आत्म अज्ञान से, होता अदृश्य आत्म ज्ञान जब होता|
जैसे रस्सी है लगती सर्प वत, जब तक सत्य ज्ञान न होता||(२.७)

The world appears Self due to our ignorance 
and disappears when the Self is realised, just 
like the rope, which appears as snake, till we 
know about it.(2.7)

है प्रकाश निज रूप ही मेरा, मैं कब अलग हुआ हूँ उससे|  
जग को जैसे करे प्रकाशित, मेरा अहम् प्रकाशित उससे||(२.८)

Light is my personal image and I am nothing 
but light. When the world is illuminated by 
light, the same is illuminated by my light.(2.8)

है आश्चर्य कि यह कल्पित जग, भ्रम वस ऐसा भासे मुझमें|       
सीप में चांदी, रज्जु सर्प वत, लगते जैसे अज्ञान के वस में||(२.९)

I wonder that this imaginary world appears to
be existing in me due to ignorance, just as silver
in sea-shell, snake in the rope. (2.9)

मुझसे ही उत्पन्न हुआ जग, मुझमें ऐसे विलीन हो जाता| 
जैसे है घट व आभूषण, बनता जिससे उसमें मिल जाता||(२.१०)

This world has originated from me and will be
absorbed in me, like earthen pitcher made of
clay into clay, the bracelet of gold into gold.(2.10)

                                          ....क्रमशः

......©कैलाश शर्मा