'मैं' हूँ नहीं यह शरीर
'मैं' हूँ जीवन सीमाओं से परे,
मुक्त बंधनों से शरीर के।
'मैं' हूँ अजन्मा
न ही कभी हुई मृत्यु,
'मैं' हूँ सदैव मुक्त समय से
न मेरा आदि है न अंत।
'मैं' हूँ जीवन सीमाओं से परे,
मुक्त बंधनों से शरीर के।
'मैं' हूँ अजन्मा
न ही कभी हुई मृत्यु,
'मैं' हूँ सदैव मुक्त समय से
न मेरा आदि है न अंत।
'मैं' हूँ सच्चा मार्गदर्शक
जो भी थामता मेरा हाथ
नहीं होता कभी पथ भ्रष्ट,
लेकिन देता अधिकार चुनने का
मार्ग अपने विवेकानुसार,
टोकता हूँ अवश्य
पर नहीं रोकता निर्णय लेने से,
'मैं' हूँ सर्व-नियंता, सर्व-ज्ञाता
लेकिन बहुत दूर अहम् से।
जो भी थामता मेरा हाथ
नहीं होता कभी पथ भ्रष्ट,
लेकिन देता अधिकार चुनने का
मार्ग अपने विवेकानुसार,
टोकता हूँ अवश्य
पर नहीं रोकता निर्णय लेने से,
'मैं' हूँ सर्व-नियंता, सर्व-ज्ञाता
लेकिन बहुत दूर अहम् से।
...कैलाश शर्मा
अहम से दूरी जरूरी है। अच्छा विचार।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteगहन एवं विचारणीय प्रस्तुति ! बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteहमेशा की तरह बहुत गहरी और सुंदर ।
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमैं जब तक अहम् की सीमाओं से परे रहता है जरूरी होता है ...
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति ...
सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति.
ReplyDeleteमैं' हूँ अजन्मा
ReplyDeleteन ही कभी हुई मृत्यु,
'मैं' हूँ सदैव मुक्त समय से
न मेरा आदि है न अंत।
गहन अभिव्यक्ति
भावपूर्ण प्रस्तुति.....:)
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहद गहन भाव लिये अनुपम प्रस्तुति, सादर ...
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुती..
ReplyDeleteसुन्दर
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