Tuesday, 26 September 2017

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (चवालीसवीं कड़ी)

                     अठारहवाँ अध्याय (१८.२६-१८.३०)                                                                                  (With English connotation)
बिना प्रश्न जो कार्य है करता, लेकिन है विषयी न होता|
जग में सर्व कार्य करते भी, जीवन्मुक्त, सुशोभित होता|| (१८.२६)

The one, who acts without saying why, but not
because he is a fool, even while doing all the
worldly acts, remains liberated and happy. (18.26)

थक कर के नाना विचार से, अपने स्वरुप में स्थित रहता|
नहीं सोचता, नहीं जानता, न वो देखता, श्रवण न करता|| (१८.२७)

The one, who after being tired of listening to
various considerations and thoughts has
established peacefully in his Self, does not
think, know, see and listen.(18.27)

मुक्त समाधि व विषयों से, विक्षेप समाधि से परे है रहता|
सर्व विश्व कल्पित वह जाने, स्वयं ब्रह्मवत स्थिर है रहता|| (१८.२८)

The one, who is beyond mental stillness and
distractions, remains free from desire for
liberation or its opposite. Knowing that this
world is creation of imagination, he remains
established as Brahma (God). (18.28)

लोक द्रष्टि में कार्य न करके, कर्म अहंकारी सब करता|
अहंविहीना धीर पुरुष है, करके भी वह कर्म न करता|| (१८.२९)

The one, who is having ego, while not doing
any act in the eyes of the world, actually does,
but the wise man even when doing acts, in fact
does not do anything. (18.29)

संतोषी या उद्विग्न न ज्ञानी, न अभिमान कर्म का होता|
न आशा है ज्ञानी के मन में, न ही संदेह चित्त में होता|| (१८.३०)

The liberated man is neither disturbed nor
satisfied and is not proud of the acts done
by him. In the mind of the wise man there
is neither hope nor doubt. (18.30)

                                         ...क्रमशः

....© कैलाश शर्मा

7 comments:

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  2. "अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का ग्रन्थ है।राजा जनक एवं अष्टावक्र के संवाद को अष्टावक्र गीता कहते है। कैलाश जी सरल शब्दों में इस गीता को हिंदी में और अर्थ इंग्लिश में लिखा है। आप भी आत्मज्ञान लें। "आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/10/37.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!

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  3. संतोषी या उद्विग्न न ज्ञानी, न अभिमान कर्म का होता|
    न आशा है ज्ञानी के मन में, न ही संदेह चित्त में होता||
    बहुत बढ़िया आदरणीय शर्मा जी !!

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