बारहवां अध्याय (१२.१-१२.४)
(with English connotation)
....©कैलाश शर्मा
(with English connotation)
राजा जनक कहते हैं :
King Janak says :
मैं निरपेक्ष हूँ तन के कर्मों से, फिर वाणी से
निरपेक्ष हुआ हूँ|
अब चिंता से निरपेक्ष है होकर, मैं स्थिति अपने
रुप हुआ हूँ||(१२.१)
I became indifferent to all activities performed by
body and thereafter became indifferent to all the
activities of speech. Now being indifferent to all
the worries, I am peacefully established in Self.(12.1)
मैं अनासक्त हूँ सब विषयों से, आत्म दृष्टि का
विषय न होता|
मैं निश्छल एकाग्र ह्रदय से, अपने स्वरुप में बस
स्थित होता||(१२.२)
I am unattached to all the subjects of sound and
senses and I know that the Self is not an object of
sight. Therefore, with my focussed and undisturbed
mind, I am established in my Self.(12.2)
असत्य ज्ञान विक्षेप है करता, उसको दूर समाधि
है करता|
यह स्वाभाविक नियम मान कर, अपने रूप में स्थिर
रहता||(१२.३)
Being distracted by wrong perceptions, one
strives for mental stillness. Knowing this as
natural pattern, I am established in my Self.(12.3)
त्याग ग्रहण से मैं विहीन हो, सुख दुःख से मैं मुक्त
हूँ रहता|
अब मैं जैसा हूँ वैसा रह कर, अपने स्वरुप में
स्थिर रहता||(१२.४)
Renouncing the feelings of rejection and acceptance,
I am liberated from pleasure and pain. Therefore,
staying as I am, I am established in Self.(12.4)
...क्रमशः
लाजवाब अनुवाद सर। बहुत खूब।
ReplyDeleteअनुपम प्रयास ...सादर आभार
ReplyDeleteSaarthak prayas
ReplyDeleteSaarthak prayas
ReplyDeleteबहुत सुंदर अध्यात्मिक पोस्ट की प्रस्तुति।
ReplyDeleteत्याग ग्रहण से मैं विहीन हो, सुख दुःख से मैं मुक्त हूँ रहता|
ReplyDeleteअब मैं जैसा हूँ वैसा रह कर, अपने स्वरुप में स्थिर रहता|
निरपेक्ष होना जितना आसान लगता है सच में उतना होता नही ! सुंदर भावार्थ आदरणीय शर्मा जी
God blless
ReplyDeleteNiice blog
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