Wednesday, 2 December 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (उन्नीसवीं कड़ी)

                                        नवम अध्याय (९.५-९.८)
                                            (with English connotation)
महर्षि और योगी जन के हैं, अलग अलग जग में मत होते|  
कौन मनुज विमुक्त हो इससे, नहीं शान्ति को प्राप्त हैं होते||(९.५)

Observing the different opinions of sages, saints
and yogis, who will not be indifferent to these and
attain peace?

समता, विराग व युक्ति से, जिसने चैतन्य आत्म को जाना|
तारण करता है जो इस जग से, ऐसे गुरु को है सच्चा माना||

A true guru is aware of the nature consciousness,
is unattached and endowed with equanimity.
This guru will lead the world out of cycle of
life or death.(9.6)

जब विकार को तुम तत्वों के, केवल भूत मात्र देखोगे|   
मुक्त सभी बंधन से होकर, अपने स्वरुप में स्थित होगे||(९.७)

When you see the change or transformation
in elements as mere that in elements, you
would be free from all bondages and
would be established in your own nature.(9.7)

संसार सृजन इच्छाओं से है, त्याग करो इच्छाओं का तुम|
इच्छाओं का त्याग है करके, स्व-स्वरुप स्थित होगे तुम||(९.८)

Desires create the world and, therefore, you
get rid of desires. By renunciation of desires,
you would be established in your own nature.(9.8)
  
                  नवम अध्याय समाप्त     
  
                                                 ....क्रमशः

....©कैलाश शर्मा 

11 comments:

  1. आत्मज्ञान का बोध कराती सुंदर पंक्तियाँ..

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  2. कैलाश जी ! आप बहुत सुन्दर कार्य कर रहे हैं , आपके माध्यम से हम अष्टावक्र - गीता को पढ रहे हैं अन्यथा इस श्रुति से हम वञ्चित रह जाते ।
    अभिलाषायें मानव को इतना दौडाती हैं कि उसका जीवन उसी में समाप्त हो जाती है और उस बेचारे को इसकी भनक भी नहीं लगती । यही आश्चर्य है ।

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  3. वाह बहुत सुंदर हमेशा की तरह !

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  4. सहज और सरल शब्दो में गीता की जानकारी ..
    थन्यवाद

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  5. खूबसूरत अनुवाद।

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  6. खूबसूरत अनुवाद।

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  7. सादर ह्रदय से धन्यवाद ,कैलाश शर्मा जी

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  8. बड़ी सहजता से व्यक्त तत्वज्ञान अपना बोध कराने में समर्थ है - आभार !

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  9. बहुत सुंदर भावानुवाद

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  10. जब विकार को तुम तत्वों के, केवल भूत मात्र देखोगे|
    मुक्त सभी बंधन से होकर, अपने स्वरुप में स्थित होगे
    सुन्दर आध्यात्मिक पंक्तियाँ आदरणीय शर्मा जी !

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