बाँध लेते जब स्वयं को
किसी विचार, व्यक्ति या वस्तु से,
खो देते अपना अस्तित्व
और बंध जाते उसके अस्तित्व से।
किसी विचार, व्यक्ति या वस्तु से,
खो देते अपना अस्तित्व
और बंध जाते उसके अस्तित्व से।
मत बांधो
अपनी नौका किसी किनारे
बहने दो साथ लहरों के,
देखो अपने चारों ओर दृष्टा भाव से
होते अनवरत बदलाव,
अप्रभावित तुम्हारा अस्तित्व जिस से।
बहने दो साथ लहरों के,
देखो अपने चारों ओर दृष्टा भाव से
होते अनवरत बदलाव,
अप्रभावित तुम्हारा अस्तित्व जिस से।
जब होता जाग्रत दृष्टा भाव
हो जाती मुक्त आत्मा
हो जाती मुक्त आत्मा
सभी बदलाव और बंधनों से.
...कैलाश शर्मा
प्रेरणादायक उम्दा रचना
ReplyDeleteप्रेरणादायक उम्दा रचना
ReplyDeleteसहमत हूँ आपकी बात से .. जब सीधे बाँध सकते हैं नौका उस पालनहार से तो काहे किसी से बंधें ...
ReplyDeleteअति सुंदर भाव अध्यात्म चिंतन को प्रेरित करती रचना, बधाई शर्माजी आपको ।
ReplyDeleteबंधन होते हैं जहां, वह माया का ठौर ।
जाने तो हैं लोग सब, करे न कोई गौर ।।
सुंदर भाव ....मगर मोह से निकलना बहुत कठिन भी है ...सादर
ReplyDeleteमत बांधो अपनी नौका किसी किनारे
ReplyDeleteबहने दो साथ लहरों के,
देखो अपने चारों ओर दृष्टा भाव से
होते अनवरत बदलाव,
अप्रभावित तुम्हारा अस्तित्व जिस से।
ऐसा होता है ! सार्थक प्रस्तुति आदरणीय श्री कैलाश शर्मा जी
तभी मैं किसी ठौर टिक नहीं पाती हूं
ReplyDeleteप्रेरणादायक रचना sir!!☺
चाहते तो सभी यही है मगर यह मानव मन है ना बहुत ही चंचल होता है। एक जगह टिकता ही नहीं कभी...प्रेरणादायी रचना।
ReplyDeleteजब होता जाग्रत द्रष्टा भाव
ReplyDeleteहो जाती मुक्त आत्मा
सभी बदलाव व बन्धनों से
सार्थक सन्देश देती कविता।बहुत सुन्दर शर्मा जी।
जब होता जाग्रत द्रष्टा भाव
ReplyDeleteहो जाती मुक्त आत्मा
सभी बदलाव व बन्धनों से
सार्थक सन्देश देती कविता।बहुत सुन्दर शर्मा जी।
वाह !
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर रचना है |
ReplyDeleteबेहद भावपूर्ण रचना।
ReplyDeleteजब होता जाग्रत दृष्टा भाव
ReplyDeleteहो जाती मुक्त आत्मा
सभी बदलाव और बंधनों से.
बड़े भाग्य से ये भाव जागते है! भवसागर पार कराने वाके की कृपा बिना संभव नहीं!
बहुत ही सुन्दर रचना....
ReplyDeleteगहन गूढ़ प्रस्तुति ! बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteसुंदर मुक्तिबोध !
ReplyDeleteअस्तित्व और अनस्तित्व का बोध कराती अच्छी कविता ।
ReplyDeleteउपनिषिदिक सीख देती पोस्ट। कोई वस्तु कोई व्यक्ति जब तक ही तुम्हें डिस्टर्ब करती है जब तक तुम स्वयं को नहीं जान लेते। दृष्टा होना ही खुद से मिलन है। यहां सिर्फ होना अहम है। भाई जान आपकी द्रुत टिप्पणियाँ प्रेरित करती हैं आगे बढ़ने को चिन्हित दिशा में आभार।
ReplyDeleteसुंदर और भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteसही चिन्तन...
ReplyDeleteद्वंद्व बोले तो पेयर आफ अपोज़िट्स राजा रंक ,राजा प्रजा ,मंत्री विकलांग ,सुख दुःख ,गर्मी सर्दी ,सब एक दूसरे के कंधे पे ही तो खड़े हैं।
ReplyDeleteशुक्रिया कैलाश भाई साहब। बढ़िया लिख रहें हैं आप अक्सर हमारी आपकी टिप्पणियाँ परस्पर एक दूसरे के लेखन के लिए आंच बन जातीं हैं ऊर्जा हो जातीं हैं लेखन की। शुक्रिया आपका।
वो जो आँख की भी आँख है वही देखता है वह जो कान का भी कान है वही सुनता है यह जैविक कान तो एक इंस्ट्रूमेंट भर है। वह जो वाणी की भी वाणी है वही वाक् है वक्ता है वही बोलता तुम्हारा मुख तो एक उपकरण भर है। वह जो साक्षी है वही तुम हो ,जहां तुम्हारा मन स्टिल हो जाता है। मन अमन हो जाता है वही और वहीँ तुम हो। बढ़िया लेखन सरजी।
जब होता जाग्रत दृष्टा भाव
हो जाती मुक्त आत्मा
सभी बदलाव और बंधनों से.
द्वंद्व बोले तो पेयर आफ अपोज़िट्स राजा रंक ,राजा प्रजा ,मंत्री विकलांग ,सुख दुःख ,गर्मी सर्दी ,सब एक दूसरे के कंधे पे ही तो खड़े हैं।
ReplyDeleteशुक्रिया कैलाश भाई साहब। बढ़िया लिख रहें हैं आप अक्सर हमारी आपकी टिप्पणियाँ परस्पर एक दूसरे के लेखन के लिए आंच बन जातीं हैं ऊर्जा हो जातीं हैं लेखन की। शुक्रिया आपका।
वो जो आँख की भी आँख है वही देखता है वह जो कान का भी कान है वही सुनता है यह जैविक कान तो एक इंस्ट्रूमेंट भर है। वह जो वाणी की भी वाणी है वही वाक् है वक्ता है वही बोलता तुम्हारा मुख तो एक उपकरण भर है। वह जो साक्षी है वही तुम हो ,जहां तुम्हारा मन स्टिल हो जाता है। मन अमन हो जाता है वही और वहीँ तुम हो। बढ़िया लेखन सरजी।
जब होता जाग्रत दृष्टा भाव
हो जाती मुक्त आत्मा
सभी बदलाव और बंधनों से.
बहुत सुन्दर सृजन, बधाई
ReplyDeleteसदैव की तरह बोधगम्य - प्रस्तुति । अनुभूत सत्य । लेखन को जीवन में उतारना कोई आप से सीखे ।
ReplyDeleteज़िंदगी कसके बस में रही है?
ReplyDeleteये नौका तो बंधकर भी बही है।