टुकड़े
टुकड़े संचित करते जीवन में
भूल जाते
अस्तित्व सम्पूर्ण का,
देखते
केवल एक अंश जीवन का
मान लेते
उसको ही सम्पूर्ण सत्य
वही बन
जाता हमारा
स्वभाव, प्रकृति,
अहम् और ‘मैं’.
नहीं होता
परिचय सम्पूर्ण से
केवल
बचपने प्रयासों द्वारा,
जगानी
होती बाल सुलभ उत्सुकता,
बचपना है
एक अज्ञानता
एक भय
नवीनता से,
बचपन है
उत्सुकता और मासूमियत
जिज्ञासा
जानने की प्रति पल
जो कुछ
आता नवीन राह में,
नहीं
ग्रसित पूर्वाग्रहों
पसंद
नापसंद, भय व विचारों से,
देखता हर
पल व वस्तु में
आनंद का
असीम स्रोत.
जैसे जैसे
बढ़ते आगे जीवन में
अहंकार
जनित ‘मैं’,
घटनाएँ,
विचार और अर्जित ज्ञान
आवृत कर
देता मासूमियत बचपन की,
देखने
लगते वर्तमान को
भूतकाल के
दर्पण में,
भूल जाते
अनुभव करना
प्रत्यक्ष
को बचपन की दृष्टि से.
जीवन एक
गहन रहस्य
अपरिचित
दुरूह राहें
अनिश्चित
व अज्ञात गंतव्य,
बचपन की दृष्टि
है केवल
संवेदनशीलता
अनभिज्ञ
भावनाओं
व ‘मैं’ के
मायाजाल से
जो करा
सकती परिचय
हमारे
अस्तित्व के
सम्पूर्ण
सत्य से.
....कैलाश
शर्मा
तलाश जारी रहती है हमेशा ही बहुत सुंदर ।
ReplyDeletebahut sundar satya hai ......
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteबचपन की दृष्टि तो निष्कलंक होती ही है। गम्भीर चिन्तन।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति सर
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसमोईर्ण को देखना कहाँ संभव हो पाटा है हर किसी को ... कई बार तोखुद को ही पूर्णतः नहीं देख पाते हम ... गहन अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteगहरी सोच .... उम्दा अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसादर
jeevan ki sachai.
ReplyDeleteVinnie
गहन सोच की सुंदर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteआभार...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति :
ReplyDeleteटुकड़े टुकड़े संचित करते जीवन में
भूल जाते अस्तित्व सम्पूर्ण का,
देखते केवल एक अंश जीवन का
मान लेते उसको ही सम्पूर्ण सत्य
वही बन जाता हमारा
स्वभाव, प्रकृति, अहम् और ‘मैं’.
जैसे जैसे बढ़ते आगे जीवन में
ReplyDeleteअहंकार जनित ‘मैं’,
घटनाएँ, विचार और अर्जित ज्ञान
आवृत कर देता मासूमियत बचपन की,
देखने लगते वर्तमान को
भूतकाल के दर्पण में,
भूल जाते अनुभव करना
प्रत्यक्ष को बचपन की दृष्टि से.
बढ़िया प्रभावी शब्द
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