मत खींचो लक़ीरें
अपने चारों ओर
निकलो बाहर
अपने बनाये घेरे से.
खोल दो सभी खिड़कियाँ
अपने अंतस की,
आने दो ताज़ा हवा
समग्र विचारों की,
अन्यथा सीमित सोच से
रह जाओगे घुट कर
अपने बनाये घेरे में
ऊँची दीवारों के बीच.
...कैलाश शर्मा
अपने चारों ओर
निकलो बाहर
अपने बनाये घेरे से.
खोल दो सभी खिड़कियाँ
अपने अंतस की,
आने दो ताज़ा हवा
समग्र विचारों की,
अन्यथा सीमित सोच से
रह जाओगे घुट कर
अपने बनाये घेरे में
ऊँची दीवारों के बीच.
...कैलाश शर्मा
कोशिश ही कर सकते हैं :)
ReplyDeleteसुंदर ।
बहूत खूब :-)
ReplyDeleteबिल्कुल सार्थक & सटीक कहा आपने सर :!!!!!!
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteसही बात कही है आपने
http://kaynatanusha.blogspot.in/
सच....बहुत ज़रूरी है खुद को एक सीमित सोच की गिरफ़्त से निकालना सार्थक भाव लिए सुंदर रचना ।
ReplyDeleteसार्थक चिंतन ! बहुत सुंदर !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना। सार्थक भाव
ReplyDeleteekdam badhiya sir ji
ReplyDeleteबढ़िया लेखन , आदरणीय धन्यवाद !
ReplyDeleteआपकी इस रचना का लिंक शनिवार दिनांक - ५ . ७ . २०१४ को I.A.S.I.H पोस्ट्स न्यूज़ पर होगा , धन्यवाद !
आभार...
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (05-07-2014) को "बरसो रे मेघा बरसो" {चर्चामंच - 1665} पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार...
Deleteसटीक-सार्थक भाव....
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन आज की बुलेटिन, स्वामी विवेकानंद जी की ११२ वीं पुण्यतिथि , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसच कहा
ReplyDeleteबहुत सुंदर ....आभार !
ReplyDeleteखुलना तो पड़ेगा ही।
ReplyDeleteउम्दा सोच
ReplyDeleteसार्थक अभिव्यक्ति
सादर
अपने मन अपनी सोच की खिडकियों को खोलना जरूरी है ... अपने दायरे से बहार भी आना जरूरी है ... तभी खुल के सांस ली जा सकती है ...
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