Friday, 4 July 2014

खोल दो सभी खिड़कियाँ

मत खींचो लक़ीरें 
अपने चारों ओर
निकलो बाहर 
अपने बनाये घेरे से.

खोल दो सभी खिड़कियाँ 
अपने अंतस की,
आने दो ताज़ा हवा 
समग्र विचारों की,
अन्यथा सीमित सोच से
रह जाओगे घुट कर 
अपने बनाये घेरे में 
ऊँची दीवारों के बीच.

...कैलाश शर्मा 

18 comments:

  1. कोशिश ही कर सकते हैं :)
    सुंदर ।

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  2. बहूत खूब :-)
    बिल्कुल सार्थक & सटीक कहा आपने सर :!!!!!!

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  3. बहुत बढ़िया
    सही बात कही है आपने
    http://kaynatanusha.blogspot.in/

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  4. सच....बहुत ज़रूरी है खुद को एक सीमित सोच की गिरफ़्त से निकालना सार्थक भाव लिए सुंदर रचना ।

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  5. सार्थक चिंतन ! बहुत सुंदर !

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  6. बहुत बढ़िया रचना। सार्थक भाव

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  7. बढ़िया लेखन , आदरणीय धन्यवाद !
    आपकी इस रचना का लिंक शनिवार दिनांक - ५ . ७ . २०१४ को I.A.S.I.H पोस्ट्स न्यूज़ पर होगा , धन्यवाद !

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  8. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (05-07-2014) को "बरसो रे मेघा बरसो" {चर्चामंच - 1665} पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  9. सटीक-सार्थक भाव....

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  10. ब्लॉग बुलेटिन आज की बुलेटिन, स्वामी विवेकानंद जी की ११२ वीं पुण्यतिथि , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  11. बहुत सुंदर ....आभार !

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  12. उम्दा सोच
    सार्थक अभिव्यक्ति
    सादर

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  13. अपने मन अपनी सोच की खिडकियों को खोलना जरूरी है ... अपने दायरे से बहार भी आना जरूरी है ... तभी खुल के सांस ली जा सकती है ...

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