लिये आकांक्षा अंतस में चढ़ने की
खुशियों और शांति की चोटी पर
करने लगते संग्रह रात्रि दिवस
साधनों, संबंधों, अनपेक्षित कर्मों का
और बढ़ा लेते बोझ गठरी का।
उठाये भारी गठरी कंधे पर
पहुंचते जब चोटी पर
नहीं बचती क्षमता और रूचि
करने को अनुभव सुख और ख़ुशी
गँवा दिया जीवन जिसकी तलाश में।
उठाते कितने कष्ट करने में संग्रह
सुख सुविधा के भौतिक साधन
लेकिन नहीं मिलती संतुष्टि,
जुट जाते हैं पुनः करने को पूरी
नयी इच्छा नहीं है जिनका अंत,
नहीं निकल पाते जीवन भर
इच्छाओं के मकड़जाल से
और कर देते हैं विस्मृत
ख़ुशी नहीं केवल उपलब्धि
भौतिक सुविधाओं की,
यह है केवल एक मानसिक स्तिथि
जिसे पाते हैं समझ
जब देर बहुत हो चुकी होती।
नहीं हैं अनपेक्षित कर्म
और न ही संभव छुटकारा उनसे
पर जब बन जाते हैं कर्म
केवल एक साधन पाने का
एक चोटी उपलब्धि की,
विस्मृत हो जाता आनंद कर्म का
और उपलब्धियां खो देती हैं अर्थ
पहुँचने पर चोटी पर.
रिश्तों और संबंधों को
बनाते बैसाखी चढ़ने को
चोटी पर सफलता की
और कर देते तिरस्कृत उनको
सफलता के घमंड में,
पाते हैं खुशियाँ कुछ पल की
और पाते स्वयं को अंत में
सुनसान चोटी पर
खुशियों से दूर और एकाकी।
साधन और सम्बन्ध
दे सकते खुशियाँ
केवल कुछ पल की,
खुशियों के लिये जीवन में
ज़रुरत है समझने की अंतर
क्या है आवश्यक और अनावश्यक
साधन और संबंधों में।
जितना कम होगा बोझ कंधों पर
होगी उतनी ही सुगम और सुखद
यात्रा इस जीवन की।
…कैलाश शर्मा