Monday, 25 March 2019

अष्टावक्र गीता - भावपद्यानुवाद (अट्ठावनवीं कड़ी)

                                     अठारहवाँ अध्याय (१८.९६-१८.१००)                                                                                                       (With English connotation)
न है सुखी, दुखी न ज्ञानी, वह न विरक्त, न अनुरक्त है होता|
न मुमुक्ष वह, न ही मुक्त है, नहीं है कुछ, न कुछ है वह होता|| (१८.९६)

The wise man is neither happy nor sad, is neither
attached nor detached, is neither seeking liberation
nor is liberated, and is neither something nor
nothing. (18.96)

विक्षिप्त नहीं विक्षेप में ज्ञानी, समाधिस्थ, न समाधि में होता|  
वह न मूढ़ मूढ़ता में जग की, पांडित्य में है न पंडित ही होता|| (१८.९७)

He is not distracted in distraction and is not meditating
in meditation. He is not stupid in stupidity and is not
wise in wisdom. (18.97)

अपने स्वरुप में स्थित ज्ञानी, स्व-कर्मों से संतुष्ट है रहता|
सम व तृष्णा रहित है होकर, किये कर्म स्मरण न करता|| (१८.९८)

The wise man, who is established in Self, is always
satisfied. Maintaining equanimity and devoid of
any greed, he does not remember the acts done
by him. (18.98)

न प्रसन्न होता है वंदन से, निंदा होने पर क्रोध न करता|    
मृत्यु से उद्वेग है न करता, न जीवन का स्वागत करता|| (१८.९९)

He is neither happy with his praise nor upset when
blamed. He is not afraid of death nor attached to
life. (18.99)

न जन समूह की ओर भागता, न वन ही आकर्षित करता|
जिस स्थित में जहां है ज्ञानी, वहां शांत चित से है रहता|| (१८.१००)

He neither runs for crowded places, nor is
attracted by forests. He remains in a tranquil
state in whatever conditions he exists. (18.100)

                              ...क्रमशः


...© कैलाश शर्मा                         


Monday, 4 March 2019

अष्टावक्र गीता - भावपद्यानुवाद (सत्तावनवीं कड़ी)

                                     अठारहवाँ अध्याय (१८.९१-१८.९५)                                                                                                       (With English connotation)
शुभ व अशुभ सभी कर्मों में, जिसका भाव समान है रहता|
चाहे वह नृप या भिक्षुक हो, वह निष्काम सुशोभित रहता|| (१८.९१)

Whether king or beggar, one who is free from
desire and maintains equanimity in good or bad
acts, excels in life. (18.91)

सरल रूप, निष्कपट जो योगी, उसको है संकोच क्या होता?   
क्या स्वच्छंद, क्या तत्वज्ञान है, चरित्रवान योगी जो होता? (१८.९२)

For the Yogi who is simple and guileless, there is
neither dissolute behaviour nor virtue. Even the
discrimination of truth has no meaning for him. (18.92)

तृप्त स्व-रूप में स्थित हो कर, आशा, दुःख से रहित है रहता|
कौन व्यक्त कर सकता उसको, वह आनंद जो अनुभव करता|| (१८.९३)

Who can describe the pleasure of the person, who
is satisfied being established in self and is free from
pleasure and pain. (18.93)

वह सो कर भी नहीं है सोता, जाग्रत रह कर भी न जगता|
स्वप्न देख, न स्वप्न देखता, ज्ञानी पद पद तृप्त है रहता|| (१८.९४)

The wise man, who is contented in all circumstances,
is not sleeping even when asleep, is not awakened
even when awake and does not dream even when
dreaming. (18.94)

चिंता युक्त भी निश्चिंत है ज्ञानी, इन्द्रिय युक्त, रहित इन्द्रिय से|
बुद्धि युक्त, निर्बुद्धि है ज्ञानी, अहंकार युक्त, है मुक्त अहम् से|| (१८.९५)

The Yogi is free from thought even when thinking,
is without senses among senses, is without
understanding even while understanding every
thing and is devoid of any sense of responsibility

even when endowed with ego. (18.95) 

                                ...क्रमशः



...© कैलाश शर्मा