Tuesday, 9 February 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (छब्बीसवीं कड़ी)

                  तेरहवां अध्याय (१३.१-१३.४)                                                                                     (with English connotation)
राजा जनक कहते हैं :
King Janak says :

केवल कौपीन का धारण करना, भाव अकिंचन उत्पन्न न करता|
त्याग ग्रहण को विस्मृत करके, मैं अपने सुख में हूँ स्थिर रहता||(१३.१)

The inner feeling of having nothing is difficult to
achieve, even by wearing loin-cloth. I am established
in my happiness by abandoning the feelings of
acquisitions and renunciation.(13.1)

शारीरिक या वाणी का दुःख, कहाँ है अंतस का दुःख होता|
परित्याग कर मैं सब कर्मों का, मैं आत्मानंद में स्थिर होता||(१३.२)

There exists no pain due to body, speech or mind,
because by abandoning  all actions, I live happily
in my Self in all situations.(13.2)

जो भी शारीरिक कर्म हैं करते, उनका कुछ अस्तित्व न होता|
सब स्थिति में कर्तव्य है करके, मैं आत्मानंद में स्थिर होता||(१३.३)

In reality there is no existence of actions committed.
Knowing this, I exist happily in all situations, by just
doing what is presented to be done.(13.3)

देह भाव में स्थित योगी को, कर्म अकर्म भाव है बंधन होता|
संयोग वियोग प्रवृति को तज के, मैं आत्मानंद में स्थिर होता||(१३.४)

Identifying themselves with their bodies, Yogis think
about action in terms of performing or avoiding the
same. This is bondage. I exist happily in Self in all
situations, by abandoning attachment and rejection.(13.4)

                                                     ...क्रमशः

....©कैलाश शर्मा   

10 comments:

  1. बेहद खुबसुरत अनुवाद। बहुत खूब।

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  2. बेहद खुबसुरत अनुवाद। बहुत खूब।

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  3. अष्टावक्र गीता दुर्लभ ग्रंथ है जिसे कैलाश शर्मा जी ने हमारे लिए सुलभ कर दिया । आभार ।

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  4. वाह बहुत सुन्दर हमेशा की तरह ।

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  5. बहुत ही सुंदर अनुवाद। देख कर अच्छा लगता है कि अच्छी अध्यात्मिक बातों से लबरेज एक ब्लाग सबके लिए आसानी से सुलभ है।

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  6. देह भाव में स्थित योगी को, कर्म अकर्म भाव है बंधन होता|
    संयोग वियोग प्रवृति को तज के, मैं आत्मानंद में स्थिर होता
    सुन्दर शब्दों में लिखी आध्यात्मिक पंक्तियों की सुन्दर व्याख्या !!

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  7. दुख -सुख से दूर हो कर ही परम अनुभूति है , बहुत सुंदर आध्यात्मिक अनुभूति

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  8. सार्थक व प्रशंसनीय रचना...
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है।

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