Wednesday, 12 July 2017

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (बयालीसवीं कड़ी)

                     अठारहवाँ अध्याय (१८.१६-१८.२०)                                                                                  (With English connotation)
जिसने परम ब्रह्म को देखा, चिंतन करता है अहम् ब्रह्म का|
ब्रह्म-रूप जो सब जग जाने, उसको चिंतन करना है किसका? (१८.१६)

One who has seen Supreme Soul (Param Brahm)
may think Í am Brahm’, but what is there to think
for the person who sees the entire world as one
Soul (Brahm)?  (18.16)

जो पाता विक्षेप स्वयं में, वह उसके निरोध की चिंता करता|
कोई विक्षेप रहा न जिसका, वह न निरोध की चिंता करता|| (१८.१७)

One who has seen distraction in oneself, worries
about removing that distraction. When there is no
distraction in him, what does there remain for
him to remove. (18.17)

लोगों से विपरीत है ज्ञानी, व्यवहार सभी जन जैसा करता|
न समाधि विक्षेप या लय है, अपनी आत्मा में स्थिर रहता|| (१८.१८)

The wise man, even being opposite to the worldly
man, does not see stillness, distraction or fault in
himself and remains established in his Self. (18.18)

भाव अभाव रहित है ज्ञानी, तृप्त, कामना रहित है रहता|
लोक द्रष्टि में कर्ता लेकिन, वह जग में कुछ भी न करता|| (१८.१९)

The wise man is free from being and non-being
and being without desires remains satisfied. Even
when in the eyes of the world he appears to
doing acts, he does not do anything. (18.19)

कर्म है जो जीवन में आता, उसको वह सुख से है करता|  
कर्मों में रुचि या विरक्ति में, ज्ञानी नहीं दुराग्रह रखता|| (१८.२०)

The wise man does happily whatever comes
in his life to act. He encounters no difficulty
in doing or not doing any act. (18.20)

                                             ...क्रमशः

....© कैलाश शर्मा