Wednesday, 28 October 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (पंद्रहवीं कड़ी)

                                          षष्ठ अध्याय (६.१-६.४)
                                            (with English connotation)
अष्टावक्र कहते हैं :
Ashtavakra says :

मैं अनंत आकाश के सम हूँ, प्रकृतिजन्य यह जग है घटवत |
ग्रहण त्याग करना न इसका, बस होना है इस से समरस||(६.१)

I am infinite like space and this world is like a
jar. Knowing this, you need not renounce or
accept this world, but be one with it.(6.1)

मैं हूँ सागर के जैसा, लहरों के समान है जो जग दिखता|
एक रूप होना बस इससे, इसे ग्रहण या त्याग न बनता||(६.२)

I am like the ocean and this visible world is
like waves. Knowing this, there is nothing to
renounce or accept, but be one with it.(6.2)

जैसे रजत सीप में कल्पित, वैसे ही यह विश्व है मुझमें|
इसका ग्रहण त्याग न करना, एक रूप हो जाओ इसमें||(६.३)

This entire world is imagined in me, just like
silver in the sea-shell. Knowing this, there is
nothing to renounce or accept, but be one
with it.(6.3)

मैं समस्त प्राणी जन में हूँ, जैसे होते सब प्राणी जन मुझमें|
ग्रहण त्याग न करो ज्ञान यह, हो जाओ समरूप है इसमें||(६.४)

I am in all beings and all beings are in me. 
Knowing this, there is nothing to renounce 
or accept, but be one with it.(6.4)

                         षष्ठ अध्याय समाप्त 

                                                 ....क्रमशः

....©कैलाश शर्मा

Tuesday, 20 October 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (चौदहवीं कड़ी)

                                        पंचम अध्याय (५.१-५.४)
                                            (with English connotation)
अष्टावक्र कहते हैं :
Ashtavakra says :

शुद्ध स्वरुप, न सम्बन्ध किसी से, त्याग चाहते करना क्या तुम|
अहंकार देह का तज कर, अपने स्वरुप से तादात्म्य करो तुम||(५.१)

You are pure and not attached to anything, then
what is there to renounce for you. Forgetting your
connection with unreal world, be one with your Self.(5.1)

उत्पन्न बुलबुले ज्यों सागर से, वैसे ही संसार उदित है तुझसे|
मन लय जब हो जाता आत्मा से, सर्व विश्व लय होता तुझसे||(५.२)

As the bubbles arise in the sea, similarly this world
originates from your Self. Knowing this, you
become one with your Self.(5.2)

शुद्ध रूप तुम में इस जग का, सर्प रज्जु सम अस्तित्व न कोई|
एकाकार हो तुम स्व-आत्मा से, जग का है अस्तित्व न कोई||(५.३)

This world visible to your eyes is un-real and
insubstantial. You are pure and this world does not
exist in you, like the snake imagined in the rope.
Knowing this, you be one with your Self.(5.3)

पूर्ण व सम सुख दुःख में जानो, जीवन मृत्यु में भी सम हो|
आशा और निराशा में हो सम, एकाकार आत्म से तुम हो||(५.४)

Equal in pleasure and pain, equal in life and death,
and equal in hope and disappointment, you are
complete and, therefore, be one with Self.(5.4)


                           पंचम अध्याय समाप्त 

                                              ....क्रमशः

....©कैलाश शर्मा

Thursday, 15 October 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (तेरहवीं कड़ी)

                                        चतुर्थ अध्याय (४.१-४.६)
                                            (with English connotation)
अष्टावक्र कहते हैं :
Ashtavakr says :

आत्म तत्व को जो जन जाने, जग के भोगों को खेल समझता|
जग के भोगों में लिप्त मूढ़ से, उस ज्ञानी जन की क्या समता||(४.१)

The wise man, who knows Self, understands the
enjoyment of the world as sport and he cannot be
compared to the deluded person who is bearing
the burden of the world.(4.1)

जिस पद को पाने की इच्छा में, इन्द्रादि देव दीन बन जाते|
उस पद पर स्थित हो कर भी, ज्ञानी जन न किंचित हर्षाते||(४.२)

Even after achieving the state, which Indra etc.
yearn for, the wise man does not feel any joy.(4.2)

आत्म तत्व का ज्ञान जो रखता, पाप पुण्य से उसका क्या नाता|
धूम्र दिखाई देता नभ में सबको, उसका कब है आकाश से नाता||(४.३)

The wise man knowing Self remains unattached with
good or evil, just like smoke visible in the sky but
not a part of the sky.(4.3)

यह सब विश्व आत्मा उसकी, है जान गया जो ज्ञानी इसको|
वर्त्तमान में स्व-इच्छा से, रहने से कौन रोक सकता उसको||(४.४)

Who can prevent from living in present as per his
wishes to the wise man, who has perceived the
whole world as part of his Self.(4.4)

चतुर्वर्ग के सब प्राणी जन में, और ब्रह्म से तृण तक सृष्टि में|
त्याग की इच्छा और अनिच्छा, है केवल आत्मा के ज्ञानी में||(४.५)

From Brahma to the grass and among all four
categories of beings, the only person who knows
Self can be devoid of desire or aversion.(4.5)

अद्वैत है आत्मा ईश्वर जग की, जान है पाता इसको कोई|
और जान लेता है जो यह, रहता उसे न फिर भय कोई||(४.६)

Rare is the person who knows the Self as One
and Master of the world, and who knows this
is not afraid of anything in the world.(4.6)


                    चतुर्थ अध्याय समाप्त     

                                                ....क्रमशः

....©कैलाश शर्मा 

Thursday, 8 October 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (बारहवीं कड़ी)

                                      तृतीय अध्याय (३.११-३.१४)
                                             (with English connotation)
ज्ञानी धीर पुरुष इस जग को, केवल माया रूप समझता|
निकट मृत्यु के आने पर भी, कैसे वह उससे डर सकता||(३.११)

How the learned person with strong mind, who
knows this world as illusion and has no interest 
in it, may be afraid of death on its arrival.(3.11)

इच्छा रहित निराशा में भी, जिस ज्ञानी का मन है रहता|
आत्म ज्ञान से तृप्त जो जन है, उसके तुल्य कौन हो सकता||(३.१२)

Who can be compared with that learned person,
who does not have any desire even in despondency
and is satisfied in the knowledge of self.(3.12)

जो कुछ दृश्यमान है होता, उसका कुछ अस्तित्व न होता|
धीर पुरुष को इस कारण से कुछ भी त्याज्य ग्राह्य न होता||(३.१३)

Whatever is visible to the eyes is not real and
has no existence. Therefore, to the person of
resolute mind there is nothing to be obtained
or rejected.(3.13)

मुक्त विषय वासनाओं से, आशा द्वंद्व रहित जो होता|
दैवयोग से प्राप्त वस्तु से, उसको हर्ष न शोक है होता||(३.१४)

The person, who is free from all passions,
desires and doubts, does not feel pleasure or
pain by the events which come of its own.(3.14)


                    तीसरा अध्याय समाप्त

                    ....क्रमशः

....©कैलाश शर्मा