कभी कभी झूलने लगता मन
होने या न होने के बीच
तुम्हारे अस्तित्व के।
तर्क की कसौटी
उठाती कई प्रश्न चिन्ह
अस्तित्व पर ईश्वर के।
लेकिन नहीं देती साथ
आस्था किसी तर्क का
और पाती तुम्हें साथ
हर एक पल।
होने या न होने के बीच
तुम्हारे अस्तित्व के।
तर्क की कसौटी
उठाती कई प्रश्न चिन्ह
अस्तित्व पर ईश्वर के।
लेकिन नहीं देती साथ
आस्था किसी तर्क का
और पाती तुम्हें साथ
हर एक पल।
क्या है सत्य?
तुम्हारे न होने का तर्क
या आस्था तुम्हारे होने की?
तुम्हारे न होने का तर्क
या आस्था तुम्हारे होने की?
सोचता हूँ लगा दूँ बाज़ी
अस्तित्व पर तुम्हारे होने की,
अगर जीत जाता हूँ,
पाउँगा वह सब कुछ
जो है अतुलनीय
और नहीं रहती कोई आकांक्षा
जिसको पाने के बाद।
और अगर हार जाता हूँ
नहीं होगा कोई पश्चाताप
क्यों कि नहीं खोया कुछ भी
मैंने बाज़ी हार कर।
अस्तित्व पर तुम्हारे होने की,
अगर जीत जाता हूँ,
पाउँगा वह सब कुछ
जो है अतुलनीय
और नहीं रहती कोई आकांक्षा
जिसको पाने के बाद।
और अगर हार जाता हूँ
नहीं होगा कोई पश्चाताप
क्यों कि नहीं खोया कुछ भी
मैंने बाज़ी हार कर।
क्या हानि है लगाने पर बाज़ी
एक बार अपनी आस्था पर
तुम्हारे अस्तित्व के होने पर?
एक बार अपनी आस्था पर
तुम्हारे अस्तित्व के होने पर?
...कैलाश शर्मा