Wednesday, 24 May 2017

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (इकतालीसवीं कड़ी)

                     अठारहवाँ अध्याय (१८.११-१८.१५)                                                                                (With English connotation)
राज्य मिले या भिक्षुक हो वह, योगी विकल्प रहित है रहता|
लाभ हानि, वन या समाज में, ज्ञानी को सब है सम रहता||(१८.११)

The kingdom of heaven or beggary, profit or loss,
living in forest or society, all these make no
difference to the Yogi whose nature is to be free
from distinctions.(18.11)

क्या है किया और क्या करना, इन द्वंद्वों से मुक्त है रहता|
धर्म है क्या, क्या अर्थ काम है, ज्ञानी नहीं प्रयोजन रखता||(१८.१२)

There is no religion, no wealth and no sensuality
for the Yogi who is free from conflict of what he
has already done and what is yet to be done.(18.12)

न उसका है कर्तव्य कर्म को, न ही अनुराग किसी से होता|
जो भी मिला रहा खुश उससे, ऐसा जन ही योगी है होता||(१८.१३)

There is nothing required to be done nor any attachment in the heart of the Yogi. He is happy 
with whatever he gets in life.(18.13)

कहाँ मोह है, कहाँ ये जग है, कहाँ मुक्ति या ध्यान है होता|
इन सब से वह मुक्त है योगी, जिसको आत्मज्ञान है होता||(१८.१४)

There is no attachment, world, meditation on that
and liberation to the Yogi, who is established in
Self and is free from all these.(18.14)

जिसने है इस जग को देखा, जाने वह यह सत्य नहीं है|  
जो वासना रहित जन होता, दृश्यमान भी विश्व नहीं है||(१८.१५)

One who sees this world knows definitely that this
world is not real, but desire-less one even while
seeing this world does not see it.(18.15)

                                                ...क्रमशः


....© कैलाश शर्मा