Tuesday, 14 June 2016

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (इकत्तीसवीं कड़ी)

                 पन्द्रहवां अध्याय (१५.११-१५.१५)                                                                               (with English connotation)
तुम अनंत सागर के सम हो, जिसमें विश्व रूप लहर हैं होती|  
उठना गिरना स्वभाव लहरों का, तुम्हें न क्षति या वृद्धि होती||(१५.११)

You are just like a great ocean in which the waves
of world arise and subsidise due to their nature,
but you do not lose or gain any thing by this.(15.11)


प्रिय तुम केवल चैतन्य रूप हो, यह है विश्व अलग न तुमसे|
कैसे तुम यह सोच है सकते, कौन श्रेष्ठ या निम्न है किससे||(१५.१२)

Oh dear! you are pure consciousness only and
this world is not separate from you. Therefore,
how can you think that one is superior or inferior.(15.12)

इस अव्यय, निर्मल आकाश शांत में, नहीं तुम्हारा जैसा कोई|
जन्म, कर्म या अहंकार को, नहीं सोच सकता तुम में है कोई||(१५.१३)

In this imperishable, pure and calm space there is no
one like you. Therefore, it is unthinkable that you
may be having birth, action or ego.(15.13)

जिसे देखते हो तुम इस जग में, उसमें तुम ही प्रतिबिम्बित होते|   
कंगन, बाजूबंद या पायल सोने के, अलग स्वर्ण से कब हैं होते||(१५.१४)

Whatever you see in the world is nothing but your
reflection. How can bracelets, armlets and anklets
made of gold may be different from gold?(15.14)

यह मैं हूँ या नहीं हूँ मैं यह, इन सब भेदों का त्याग करो तुम|
तुम ही सर्वरूप आत्मा हो, यह निश्चय कर सुखी रहो तुम||(१५.१५)

You renounce all this duality that this is I and this
is not me. Knowing that you are soul encompassing
everyone, be happy.(15.15)

                                               ...क्रमशः

....© कैलाश शर्मा