Wednesday, 5 August 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (दूसरी कड़ी)

             प्रथम अध्याय (१.६-१.११)

सुख दुख, धर्म अधर्म हैं, केवल मन के रूप,
न तुम कर्ता न भोक्ता, तुम हो मुक्त स्वरूप.(.)

तुम हो दृष्टा जगत के, मुक्त सदा ही आप,
दृष्टा समझें और को, इस बंधन में आप.(.)

अहंकार से ग्रसित तू, लेता कर्ता मान,
मैं तो कर्ता हूँ नहीं, सुख पावे यह जान.(.)

ज्ञान रूप पहचान कर, दहन करो अज्ञान,
शोकरहित हो जाए मन, सुख का हो संज्ञान.(१.९)

 जैसे रस्सी में लगे, सर्प होन का भान,
कर अनुभव आनंद का, असत विश्व यह जान.(१.१०)

मुक्त मानते मुक्त हो, बद्ध मानते बद्ध,
यथा बुद्धि है तथा गति, यह है कथन प्रसिद्ध.(१.११)

                                    ....क्रमशः

...©कैलाश शर्मा

13 comments:

  1. वाह ... दोहों में अष्टवक्र गीता को बाखूबी उतारा है आपने ... सरल शब्दों मिएँ गूढ़ रहस्य ...

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  2. बहुत सुंदर पद्यानुवाद, आभार

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  3. अति सुन्दर ! बहुत बढ़िया !

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  4. कहीं पढ़ा है कि अष्टावक्र गीता को गीता से भी उच्च स्थान प्राप्त है ..
    बहुत सुन्दर पद्यानुवाद प्रस्तुति हेतु आभार!

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  5. लाजवाब अनुवाद।अति सुन्दर शर्मा जी।

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  6. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, १०१ साल का हुआ ट्रैफिक सिग्नल - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  7. सुंदर दोहा रूप अष्टावक्र गीता।
    मुक्त मानते मुक्त हो, बद्ध मानते बद्ध,
    यथा बुद्धि है तथा गति, यह है कथन प्रसिद्ध.
    बहुत सुंदर।

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  8. अहंकार से ग्रसित तू, लेता कर्ता मान,
    मैं तो कर्ता हूँ नहीं, सुख पावे यह जान

    ज्ञान रूप पहचान कर, दहन करो अज्ञान,
    शोकरहित हो जाए मन, सुख का हो संज्ञान
    बहुत ही सुन्दर

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  9. मुक्त मानते मुक्त हो, बद्ध मानते बद्ध,
    यथा बुद्धि है तथा गति, यह है कथन प्रसिद्ध.

    बहुत सुंदर !

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  10. आपकी सर्वतोन्मुखी - प्रतिभा का एक और अद्भुत - उदाहरण । छोटे - छोटे शब्दों के माध्यम से बडी - बडी बात को बडी सादगी से कह देना आपकी विशेषता है । इस कला में आप माहिर हैं । आपकी यह रचना भी प्रणम्य है । चरैवेति - चरैवेति ...............................

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