Sunday, 16 August 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (चौथी कड़ी)

                                            प्रथम अध्याय (१.१६-१.२०)
                                      (with English summary)

सर्व विश्वव्यापी हो तुम तो, जगत पिरोया हुआ है तुम में|
ज्ञानस्वरूप शुद्ध हो तुम तो, क्षुद्र विचार न लाओ मन में||(.१६)
You have pervaded this entire world and in fact this world is pervaded in 
you like string. You are personification of pure knowledge. 
Therefore, you should not bring small things to your mind.(1.16)

निर्विकार, निरपेक्ष, शांत हो, तुम अगाध बुद्धि के सागर|
कर्म रहित होकर के अब तुम, मन चैतन्य रूप स्थिर कर||(.१७)
You are changeless, desireless, calm and store of pure awareness. You are free from all actions. Therefore, you should be nothing but consciousness.(1.17)

जो शारीरिक असत जानकर, निराकार चिर स्थिर मानो|
पुनर्जन्म से मुक्त है होगे, जब यह तत्व है तुम पहचानो||(.१८)
Whatever bears a form or body is unreal and only formless or unmanifest is permanent. If you realise this then you will be free from rebirth.(1.18)

रूप जो दर्पण में प्रतिबिंबित, वह अन्दर बाहर भी होता|
वैसे शरीर के अन्दर बाहर, परम आत्मा भी है होता||(.१९)
The reflected image in the mirror exists both within it and outside. Similarly, the Supreme Self exists both within and outside the body. (1.19)

जैसे है आकाश एक ही, घट के भीतर बाहर रहता|
वैसे सतत व शाश्वत ईश्वर, सर्व प्राणियों में है रहता||(.२०)
Just as all pervading space exists both within and outside the jar, the 
everlasting and continuous Supreme Consciousness exists both within 
and outside of every one.(1.20)


                          (प्रथम अध्याय समाप्त)
                                                     ....क्रमशः

.......©कैलाश शर्मा

16 comments:

  1. तुम हो ठाकुर में हूँ सेवक
    कहूँ तुम से अब कौन व्यथा
    उत्तम

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  2. रवीन्द्रनाथ ठाकुर का पत्र 'जनगण मन

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  3. दिनांक 17/08/2015 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
    चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
    आप भी आयेगा....
    धन्यवाद...

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  4. मन आत्मा को स्फूर्त करती अनुपम प्रस्तुति ! बहुत सुन्दर !

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  5. अष्टावक्र के लिए कहा गया था - " न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्ष्यते ।" अर्थात् जो ज्ञान - वृद्ध हैं उनकी उम्र नहीं पूछी जाती ।
    सुन्दर - सरस - अनुवाद ।

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  6. बहुत अनुपम प्रस्तुति सर ।

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  7. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ख़बरों के टुकड़े - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  8. ईशवरकण कण -कण में मौजूद है । दिल से मानने की बस बात है । बहुत सुंदर ।

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  9. जैसे है आकाश एक ही, घट के भीतर बाहर रहता|
    वैसे सतत व शाश्वत ईश्वर, सर्व प्राणियों में है रहता||
    बहुत ही सार्थक और सुन्दर ! सुन्दर और ज्ञानवर्धक श्रंखला प्रस्तुत कर रहे हैं आप आदरणीय शर्मा जी !!

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  10. अद्भुत ज्ञान से परिपूर्ण ..

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  11. बहुत सुन्दर ... इश्वर का वास हर प्राणी मात्र में है ...

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  12. Respected Shri Kailashji, Your blog contains very useful things. There are a lot of things to read and learn here. It is really a positive use of retired life.

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