Thursday 8 October 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (बारहवीं कड़ी)

                                      तृतीय अध्याय (३.११-३.१४)
                                             (with English connotation)
ज्ञानी धीर पुरुष इस जग को, केवल माया रूप समझता|
निकट मृत्यु के आने पर भी, कैसे वह उससे डर सकता||(३.११)

How the learned person with strong mind, who
knows this world as illusion and has no interest 
in it, may be afraid of death on its arrival.(3.11)

इच्छा रहित निराशा में भी, जिस ज्ञानी का मन है रहता|
आत्म ज्ञान से तृप्त जो जन है, उसके तुल्य कौन हो सकता||(३.१२)

Who can be compared with that learned person,
who does not have any desire even in despondency
and is satisfied in the knowledge of self.(3.12)

जो कुछ दृश्यमान है होता, उसका कुछ अस्तित्व न होता|
धीर पुरुष को इस कारण से कुछ भी त्याज्य ग्राह्य न होता||(३.१३)

Whatever is visible to the eyes is not real and
has no existence. Therefore, to the person of
resolute mind there is nothing to be obtained
or rejected.(3.13)

मुक्त विषय वासनाओं से, आशा द्वंद्व रहित जो होता|
दैवयोग से प्राप्त वस्तु से, उसको हर्ष न शोक है होता||(३.१४)

The person, who is free from all passions,
desires and doubts, does not feel pleasure or
pain by the events which come of its own.(3.14)


                    तीसरा अध्याय समाप्त

                    ....क्रमशः

....©कैलाश शर्मा 

9 comments:

  1. वाह ! खूबसूरत अनुवाद।

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  2. वाह ! खूबसूरत अनुवाद।

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  3. वाह ! बहुत बढ़िया अनुवाद ! अति सुन्दर !

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  4. सुकून देता है मन को गीता का पढना । बहुत बढ़िया ।

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  5. सत् - साहित्य परोसने के लिए बहुत - बहुत धन्यवाद ।

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  6. जो कुछ दृश्यमान है होता, उसका कुछ अस्तित्व न होता|
    धीर पुरुष को इस कारण से कुछ भी त्याज्य ग्राह्य न होता
    ​व्यक्ति के मनोभाव को सुन्दर रूप में लिखा है आपने आदरणीय शर्मा जी !!

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  7. बहुत ही सुन्दर और आकर्षक है। धन्यवाद आदरणीय कैलाशजी।

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  8. बहुत ही सुन्दर और आकर्षक है। धन्यवाद आदरणीय कैलाशजी।

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