Tuesday 1 September 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (छठी कड़ी)

                                      द्वितीय अध्याय (२.0६-२.१०)
                                             (with English summary)

जैसे गन्ने के रस की शक्कर में, गन्ने का गुण व्याप्त है रहता|
मुझसे ही यह विश्व बना है, मुझसे ही यह व्याप्त है रहता||(२.६)

The sugar made from the sugarcane juice
contains the same sweetness of the sugarcane.
Similarly this world, which has been made from
me, is also permeated with myself.(2.6)

जगत आत्म अज्ञान से, होता अदृश्य आत्म ज्ञान जब होता|
जैसे रस्सी है लगती सर्प वत, जब तक सत्य ज्ञान न होता||(२.७)

The world appears Self due to our ignorance 
and disappears when the Self is realised, just 
like the rope, which appears as snake, till we 
know about it.(2.7)

है प्रकाश निज रूप ही मेरा, मैं कब अलग हुआ हूँ उससे|  
जग को जैसे करे प्रकाशित, मेरा अहम् प्रकाशित उससे||(२.८)

Light is my personal image and I am nothing 
but light. When the world is illuminated by 
light, the same is illuminated by my light.(2.8)

है आश्चर्य कि यह कल्पित जग, भ्रम वस ऐसा भासे मुझमें|       
सीप में चांदी, रज्जु सर्प वत, लगते जैसे अज्ञान के वस में||(२.९)

I wonder that this imaginary world appears to
be existing in me due to ignorance, just as silver
in sea-shell, snake in the rope. (2.9)

मुझसे ही उत्पन्न हुआ जग, मुझमें ऐसे विलीन हो जाता| 
जैसे है घट व आभूषण, बनता जिससे उसमें मिल जाता||(२.१०)

This world has originated from me and will be
absorbed in me, like earthen pitcher made of
clay into clay, the bracelet of gold into gold.(2.10)

                                          ....क्रमशः

......©कैलाश शर्मा

13 comments:

  1. आपको बहुत - बहुत धन्यवाद , घर बैठे अष्टावक्र गीता का पद्यानुवाद - परोसने के लिए , यह अष्टावक्र वही है , जिसके विषय में कहा जाता है कि - " न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्ष्यते ।"

    ReplyDelete
  2. अति सुन्दर अनुवाद।

    ReplyDelete
  3. अति सुन्दर अनुवाद।

    ReplyDelete
  4. अति सुन्दर अनुवाद।

    ReplyDelete
  5. आपके इस सद्प्रयास के लिये एवं सद्विचार परोसने के लिये आपका हार्दिक अभिनंदन, सुंदर भावानानुवाद के लिये बधाई स्वीकारे आदरणीय कैलाश शर्माजी

    ReplyDelete
  6. है आश्चर्य कि यह कल्पित जग, भ्रम वस ऐसा भासे मुझमें|
    सीप में चांदी, रज्जु सर्प वत, लगते जैसे अज्ञान के वस में||

    बहुत सुंदर..अष्टावक्र गीता एक महान ग्रन्थ है, इस अनुपम कार्य के लिए साधुवाद !

    ReplyDelete
  7. मुझसे ही उत्पन्न हुआ जग, मुझमें ऐसे विलीन हो जाता|
    जैसे है घट व आभूषण, बनता जिससे उसमें मिल जाता||
    बहुत सुन्दर और सरल अनुवाद ! ये श्रंखला पूरी पढ़ना चाहूंगा ! साधुवाद आदरणीय शर्मा जी

    ReplyDelete
  8. सत्य ज्ञान गंगा का प्रवाह जैसे चल रहा है ये सिलसिला ...
    अति उत्तम ...

    ReplyDelete
  9. प्रशंसनीय ज्ञानवर्धक कार्य पढ़ने में आसान,सीधी सरल भाषा
    आभार

    ReplyDelete
  10. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  11. बहुत बढ़िया एवं ज्ञानवर्धक !

    ReplyDelete